Tuesday, July 3, 2012

वह हादसा भी कितना अजीबो गरीब था
वह आग से जला जो नदी के करीब था
शेषन केन्द्र में सचिव थे तो बुच म.प्र. के मुख्य सचिव

बस्तर में इंद्रावती नदी के किनारे रहने वाले 5 जिलों के 42 से अधिक गांवों के आदिवासी सहमें से हैं। पिछले साल 2011 की सर्दी के मौसम में बीजापुर जिले के भैरमगढ़ विकास खंड के सडार के आसपास संरक्षित वन परिक्षेत्र में कुल्हाड़ी चलने की आवाज आदिवासियों ने सुनी तब पता चला कि इंद्रावती नदी में पनबिजली योजना का काम प्रारंभ हो रहा है। पहले चरण में केवल 50 मेगावाट बिजली का उत्पादन होना है। इस तरह बोधघाट परियोजना का जिन्न फिर बाहर आ गया है। 1971 मेें इंद्रावती नदी  के जल के 500 मेगावाट बिजली बनाने बोधघाट परियोजना बनाई गई थी। जिसका व्यापक विरोध हुआ था और मप्र के तत्कालीन मुख्य सचिव एम.एन बुच की रिपोर्ट पर केन्द्र के तत्कालीन वन एवं पर्यावरण सचिव टी.एन. शेषन (बाद में चुनाव आयोग के सर्वेसर्वा) ने अनापत्ति नहीं दी और 100 गांवों के 60 हजार आदिवासी डूबान से बेघरबार होने से बच गए।
बोधघाट परियोजना
बोधघाट परियोजना के तहत 1983 में 125 मेगावाट की चार युनिट अर्थात 500 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए विश्वबैंक की मदद से इंदिरा सरोवर जल विद्युत परियोजना का शुभारंभ हुआ था। ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल बारसूर के पास 600 करोड़ की इस महत्वाकांक्षी विद्युत परियोजना पर्यावरण संबंधी स्वीकृति नहीं मिलने के कारण 80 करोड़ खर्च करने के बाद 1985 में बंद कर दी गई थी। इस परियोजना के अंतर्गत इंद्रावती नदी के पानी को रोकने से प्रभावित होने वाले 260 किलोमीटर क्षेत्र के 48 गांव प्रभावित हो रहे थे। वहीं 8 लाख वृक्ष प्रभावित हो रहे थे। तब मप्र विद्युत मंडल ने 260 किलोमीटर क्षेत्र के 115 गांवों में 124 क्षेत्र का चयन कर 24 लाख वृक्षो का रोपण करने की योजना बनाई थी। वृक्षारोपण के नाम पर 16 करोड़ (8 करोड़ वृक्षारोपण तथा 8 करोड़ स्थापना व्यय) खर्च किया गया था। मप्र विद्युत मंडल ने कुल डूबान में आनेवाली भूमि और संपत्ति के मुआवजा के तौर पर तीन हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से 50 लाख व्यय किया था। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह इस परियोजना के समर्थक थे तो तत्कालीन केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री विद्याचरण शुक्ल तथा तत्कालीन सांसद अरविंद नेताम ने जमकर विरोध किया था। उस समय बारसूर में प्रस्तावित परियोजना स्थल के पास इंद्रावती नदी में एक करोड़ 14 लाख की लागत से पुल भी बनाया गया था वहीं व्हीआईपी विश्राम गृह भी बनाया था उस समय इस विश्राम गृह की तुलना मप्र के सबसे खूबसूरत विश्रामगृह के रुप में होती थी। परियोजना का विरोध करनेवाले गिने चुने राजनेता थे कुछ ने तो पर्यावरण के नाम पर स्वत: को  भी उभारने की कोशिश की थी। इस परियोजना का पर्यावरण तथा वृक्षों के नुकसान को लेकर विरोध करनेवाले कालांतर में मालिक मक्बूजा में करोड़ों की लकड़ी कटाई के भी आरोपी निकले। तब तत्कालीन मप्र के मुख्य सचिव एमएन बुच ने अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय भेजी थी और तबके सचिव टीएन शेषन ने इस विद्युत परियोजना को पर्यावरण संबंधी स्वीकृति नहीं दी थी।
फिर जिन्न बाहर आया
पर 2011 में सर्दी के मौसम में अचानक बोधघाट परियोजना का जिन्न फिर बाहर आ गया। इंद्रावती पर 25-25 मेगावाट की दो पन बिजली योजना की स्थापना की बात सामने आई। आदिवासियों को लग रहा है कि इस पनबिजली योजना के पूरे होने पर बोधघाट परियोजना को फिर साकार करने की कोशिश की जाएगी और आदिवासियों की हजारों एकड़ कृषिभूमि, लाखों वृक्ष, पशु पक्षी यहां तक कि आदिवासियों के देवी-देवता भी डूब जाएंगे। उस समय तो बस्तर में केवल एनएमडीसी ही लौह अयस्क का उत्खनन कर रही थी पर आज स्थिति बदल गई है। टाटा स्टील, एस्सार स्टील, मीको स्टील जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बस्तर में पैर जमा लिए हैं। बिजली और पानी की उनकी जरूरते लगातार बढ़ती जा रही है लिहाजा उनकी नजरें बस्तर की एक मात्र जीवनदायिनी इंद्रावती नदी पर है।
एस्सार से जुड़े तार
ग्राम सडार में पनबिजली परियोजना का काम छत्तीसगढ़ एनर्जी कंसोर्टियम (इंडिया) प्राईवेट लिमिटेड नामक हैदराबाद की कंपनी द्वारा किया जा रहा है। सूत्र कहते हैं कि इस कंपनी के पीछे कहीं न कहीं एस्सार के तार जुड़े हैं। एस्सार पानी बहाव के साथ लौह अयस्क का परिवहन करती है। इस तरह अयस्क विशाखापटनम बंदरगाह तक पहुंचाया जाता है। लौह अयस्क के परिवहन के लिए प्रयुक्त पानी की रि-साइकिलिंग की व्यवस्था नहीं होने के कारण पानी व्यर्थ में समुद में चला जाता है ऐसी हालत में इंद्रावती नहीं का पानी कम होता जाता है। सूत्रों का कहना है कि साडार में हैदराबाद की कंपनी बिजली उत्पादन के लिए पानी संग्रहित करने चेकडेम भी बना रही है और भविष्य में इसी डेम से एस्सार को भी पानी की आपूर्ति की जाएगी।
टुकड़ों में काम
बोधघाट परियोजना में 500 मेगावाट बिजली उत्पादन की योजना थी। 125-125 मेगावाट की 4 युनिट की स्थापना होनी थी। इसे केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने स्वीकृति नहीं दी थी। इसलिए इस बार फिलहाल 50 मेगवाट बिजली उत्पादन की बात कही जा रही है इसमें कम भूमि और वन का नुकसान बताया जा रहा है। संभवत: 50 मेगावाट के लिए भी केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति भी नहीं ली गई है। 50 मेगावाट पनबिजली परियोजना पूरी होने पर बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में पन बिजली परियोजना पूरी करके अंतत:  बोधघाट परियोजना केा अंजाम दिया जाएगा। बहरहाल मिनी बोधघाट परियोजना के पीछे असल मंशा जो भी हो आदिवासियों ने विरोध का स्वर मुखर कर दिया है।
विरोध के स्वर
आदिवासियों के विरोध के चलते 28 दिसंबर 11 को कलेक्टर दंतेवाड़ा ने छत्तीसगढ़ एनर्जी कंर्सोडियम प्रबंधन  सहित प्रभावित होने वाले एरपुंड, मालेवाही, पुषवाल, हर्राकोडेर, पीची कोडेर, अमलधार, कोडेनार बिंताभेजा, रायकोर, सतसपुर आदि के ग्रामीणों की बैठक ली थी। बैठक में कंपनी प्रबंधन ने लिखित में ग्रामीणों को आश्वस्त किया था कि एक भी गांव और खेती की जमीन डूबान में नहीं आएगी साथ ही चेकडेम निर्माण शुरू करने से पहले डूबान क्षेत्र के लेबल को मुनारों द्वारा चिन्हांकित किए बिना पेड़ों की कटाई नहीं की जाएगी। पर बाद में वृक्षों पर कुल्हाडिय़ां चलना शुरू हो गई। 16 जनवरी 12 को बारसूर महोत्सव में प्रदेश के मुखिया डा.रमन सिंह को अवगत कराया गया था। 15 फरवरी 2012 को बीजापुर में विशाल रैली निकाली गई और 24 मई 2012को राज्यपाल को भी विरोध पत्र भेजा गया था। हाल ही में ग्रामीण आदिवासियों ने एक रैली निकालकर अपना विरोध भी दर्ज कराया। आदिवासियों की परेशानी यह है कि प्रदेश सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ खड़े दिखाई दे रही है तो प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का रवैया ही उनकी समझ के बाहर है।
और अब बस
0 सलवा जुडूम के बाद 622 गांव खाली हो गए, कई लोग सलवा जुडूम केम्प में रहने लगे। अब तो केम्प नाम मात्र के ही बचे हैं। सवाल यह है कि बस्तर के आदिवासी अब कहां हैं।
0 बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलने का आरोप लगता है, कलेक्टर का नक्सली अपहरण कर लेते है, मध्यस्थों की पहल पर कलेक्टर रिहा भी होते हैं, रोज हत्या, धमाके आम बात है फिर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां वहां उद्योग संचालन कर रही है, आंध्र प्रदेश के ठेकेदार काम ले रहे हैं कैसे?

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