Tuesday, June 19, 2012

नदिया सींखे खेत को, तोता कुतरे आम ...
सूरज ठेकेदार सा,  सबको बांटे काम ...

स्वामी विवेकानंद के नाम पर माना विमानतल का नाम तो हो गया पर अपने जीवन के कुछ महीने स्वामी जी ने जिस मकान में गुजारे हैं उस ओर किसी ने रूचि नहीं दिखाई। बूढापारा में वह मकान और वह कमरा अभी भी जस का तस है। स्वामीजी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने प्रदेश सरकार को कोई सकारात्मक पहल करनी ही चाहिए रायपुर शहर ने ही बालक नरेन्द्र दत्त से स्वामी विवेकानंद बनने की एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इसलिए इस शहर में ही उनकी कालजयी स्मृति को अक्षुण्ण रखने  की दिशा में कुछ न कुछ करने की जरूरत है।
छत्तीसगढ़ की युवा पीढ़ी को शायद यह पता भी नहीं होगा कि स्वामी विवेकानंद ने अपने बचपन के करीब 2 वर्ष रायपुर शहर के बूढापारा स्थित दो मकानों में बिताए थे। जहां उन्होंने अपने माता-पिता के साथ 6 माह का समय बिताया था वह मकान और वह कमरा अभी भी जस का तस है। उस कमरे में अभी भी तालाबंद है और उस मकान के मालिक उसे विवेकानंद स्वामी की यादगार बनाने सहमत भी है पर सरकार का रूख अभी स्पष्ट नहीं है। इधर बाद के करीब डेढ साल जिस मकान में स्वामी विवेकानंद रह चुके है वह मकान तो ढह चुका है। कोई कहता है कि वहां स्कूल बन गया है कोई कहता है कि स्कूल भवन के बगल में वह मकान अभी भी मौजूद है।
सन 1877 में रायपुर के रायबहादुर भूतनाथ डे का वकालत में डंका बजता था। एक बड़े मुकदमे के सिलसिले में उन्हेें एक साथी वकील की जरूरत थी और उन्होंने कोलकाता (कलकत्ता) के सुप्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त को रायपुर आकर उस मुकदमें मेें सहयोग करने राजी कर लिया। तब कलकत्ता के उत्तरी भाग में स्थित सिमुलिया में विश्वनाथ जी का पैतृक निवास था। रायपुर आकर विश्वनाथजी को लगा कि मुकदमा अधिक लम्बा चल सकता है इसलिए उन्होंने अपने परिवार को भी रायपुर लाने का फैसला लिया। उन्हें अपने बेटे नरेन्द्र नाथ (बाद में स्वामी विवेकानंद) के स्वास्थ्य के लिए भी रायपुर की जलवायु अनुकूल लगी। तब विश्वनाथ दत्त, अपनी पत्नी भुवनेश्वरी देवी, बेटी जोगनबाला, पुत्र नरेन्द्र नाथ, महेन्द्रनाथ और भूतनाथ डे के परिजन उनकी धर्म पत्नी श्रीमती एलोकेशी डे, और छ माह का बच्चा हरिनाथ डे (जो बाद में दुनिया-देश के सुविख्यात भाषाविद बने) के साथ रेलमार्ग से कलकत्ता से जबलपुर पहुंचे उस समय रायपुर रेलमार्ग से नहीं जुड़ा था। जबलपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर पहुंचे। इस तरह कलकता से 15 दिनों की यात्रा के बाद रायपुर दोनों परिवार पहुंचा था। कहा तो यह भी जाता है कि राह में ही प्राकृतिक वातावरण देखकर बालक नरेन्द्रनाथ को पहली भाव समाधी का अनुभव हुआ।
    रायपुर आकर स्वामी विवेकानंद का परिवार कोतवाली में कालीबाड़ी जाने वाले मार्ग पर स्थित डे भवन में करीब 6 माह तक रहे। डे भवन में पहली मंजिल पर दो कमरे है उन्ही कमरों में स्वामीजी बतौर नरेन्द्रनाथ के रूप में रहे। 10 हजार वर्ग फिट में फैला यह डे भवन आज भी मौजूद है और उपरी मंजिल पर वह कमरा जहां स्वामीजी अपने माता-पिता, भाई, बहन के साथ रहते थे। वह जस का तस है। उस कमरे को छेड़ा  भी नहीं गया है। करीब 6 माह इस डे भवन में रहने के बाद स्वामीजी का परिवार बूढ़ापारा के भीतर मणिभूषण सेन का स्वतंत्र मकान किराए पर ले लिया था वहां एक बड़ा कुआं भी था। बूढ़ापारा स्थित नगर निगम की कन्याशाला के आस-पास  यह मकान था। बाद में यह मकान ढहाकर नया मकान बन गया है ऐसा कहा जाता है करीब डेढ़ साल उस मकान में रहने के बाद स्वामीजी का परिवार वापस कलकत्ता चला गया।
वैसे जहां स्वामी विवेकानंद अपने परिवारजनों के साथ 6 माह रह चुके है वह भवन और कमरा अभी भी सुरक्षित है। तत्कालीन मप्र शासन के समय भी स्वामीजी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने की पहल हुई थी। इस मकान के मालिक एआर बोस तथा आभा बोस (भूतनाथ डे की पोती) ने कहा था कि उनके पिता तथा प्रसिद्ध भाषाविद हरिनाथ डे के नाम पर एक एकेडमी शासन संचालित करे, डे की एक मूर्ति की स्थापना पं.रविशंकर विश्वविद्यालय परिसर में स्थापित करे तथा उन्हें इस डे भवन की जगह कहीं रहने एक मकान भी उपलब्ध कराया जाए। पर तब भोपाल में मुख्यालय था तो नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने कोई रूचि नहीं दिखाई थी हालांकि आभा डे जो शर्त रखी थी वह कोई बड़ी शर्त नहीं थी। बहारहाल स्वामी विवेकानंद का रायपुर में स्मृति को अक्षुण्या बनाए रखने यहां विवेकानंद आश्रम की काफी पूर्व में स्थापना की गई है। बूढापारा स्थित तालाब को स्वामी जी की विशालकाय प्रतिमा की स्थापना की गई है वहीं डा.रमन सिंह के सद प्रयास से ही माना विमानतल का नाम स्वामी विवेकानंद के नाम पर रखा गया है। कितना अच्छा होता यदि डे भवन को सरकार वर्तमान मालिको से चर्चा करके अधिग्रहित कर स्वामीजी के बिताए गए 6 माह की स्मृति को बनाए रखने कोई ठोस पहल करती। स्वामीजी की 150वीं जयंती के इस समय राज्य सरकार एक बड़ा कदम उठाकर स्वामीजी की स्मृति को बनाए रखकर भावी पीढ़ी को एक धरोहर सौंप सकती है।
टाइटैनिक और छग
विश्व में उस समय का सबसे बड़ा जहाज टाइटैनिक जब डूबा तो उसमें छत्तीसगढ़ से जानेवाली एक महिला की भी जल समाधि हो गई थी यह बात और है कि डूबते जहाज से निकालने एक नाव पहुंची थी पर उस महिला ने स्वयं का जीवन बचाने के जगह एक दूधमुहे बच्चे और उसकी मां को बचाना ही मुनासिब समझा और जल समाधी लेना बेहतर समझा।
 टाइटैनिक जहाज के डूबने की जानकारी सभी को है। इस पर फिल्में भी बन चुकी है पर यह शायद काफी कम लोगों को पता होगा कि टाइटैनिक जहाज में सवार 1500 लोगों में एक महिला ऐसी भी जो छत्तीसगढ़ के चांपा-जांजगीर से अपनी बीमार मां को देखने अमरीका जा रही थी। छत्तीसगढ़ में चांपा-जांजगीर में मोनोलाईट मिशनरी का भवन उस महिला का आज भी गवाह है। उस महिला ने न केवल सामाजिक कार्यों में रूचि दिखाई, स्कूल खोला बल्कि गरीब लड़कियों की शिक्षा पर भी उस समय जोर दिया जब महिला शिक्षा केा महत्व नहीं मिलता था।
1906 में मोनोलाइट मिशनरी में काम करने एन्नी क्लेमर नामक एक युवा लड़की आई थी। वह कहां से आई थी यह तो पता नहीं चला है पर उसके पालक अमरीका मेें रहते थे उसकी पुष्टि हो चुकी है। चांपा-जांजगीर में मिशनरी के माध्यम से उसने काफी सेवा भी की। उसे अपनी मां के बीमार होने का समाचार मिला तो वह वापस आने  की अनुमति लेकर अमरीका रवाना हुई थी। वह छग से मुंबई पहुंची । संभवत: रेल से मुंबई पहुंची होगी। मुंबई से उस समय पानी जहाज से इंग्लैंड रवाना हुई थी। ब्रिटेन से उस अमरीका जाने के लिए एस.एस. हेवाफोर्ड में सवार होना था पर कोयला मजदूरों की हड़ताल से विमानसेवा प्रभावित हुई थी तब एन्नी को अमेरिका पहुंचने टाइटैनिक में अपना टिकट बुक कराना पड़ा था। टाइटैनिक सवार होकर वह अमेरिका जा रही थी पर जहाज डूबने लगा। कहा जाता है कि टाइटैनिक में सवार कई लेाग बचाए भी गए थे एक बचाव नाव जब वहां पहुंची तो जगह के अभाव में एन्नी ने एक दूधमुहे बच्चे और उसकी मां का जीवन बचाना बेहतर समझा और उन्हें नाव पर सवार कराकर स्वयं की जान देना ही उचित समझा। पता चला है कि एननी क्लेमर के जीवन पर अमेरिका में एक वृत्तचित्र भी तैयार किया गया है। उसका प्रदर्शन भी अमेरिका के पेनीसिल्वेनिया स्थित उनके पैतृक शहर में किया गया है।
बस्तर से मुख्य सचिव तक
आदिवासी अंचल बस्तर में आरसीबी नरोन्हा 49 से 52 तक सबसे अधिक समय तक कलेक्टर रहे बाद में वे अविभाजित मप्र के मुख्य सचिव बने।
आर परशुराम 86 से 88 तक बस्तर में कलेक्टर रहे और वर्तमान में वे मुख्य सचिव मप्र है। छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव सुनील कुमार ने भी बीजापुर में बतौर एमडीएम के रूप में सेवा दी और वे उस समय 10 दिन का समय अबूझमाड़ को बूझने गऐ थे।
और अब बस...
* काफी पहले बस्तर की बैलाडिला खदान को हैदरबाद में मिलाने का प्रयास किया गया, वहीं समूचे बस्तर को उड़ीसा राज्य में शामिल कराने भी बड़ा प्रयास हो चुका है।
* बस्तर 1853 में अंग्रेजों के अधीन हो गया। डिप्टी कमिश्नर मेजर चार्ल्स इलियट पहला यूरोपियन शासन बने। 1882 तक अपर गोदाबरी के डिप्टी कमिश्नर के अधीन रहा जिसका मुख्यालय सिरोंचा (महाराष्ट्र) था। बस्तर कुछ समय के लिए कालाहाण्डी के भवानी पटना के सुप्रींटेडेंट के अधीन भी रहा।

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