Tuesday, March 5, 2013

ये इश्क नहीं आसां, हमने जो ये जाना है
काजल की लकीरों को, आंखों से चुराना है

छत्तीसगढ़ में राजनीति में युवा वर्ग तो सक्रिय है ही साथ ही उम्र दराज नेता भी अभी सक्रिय है। कांग्रेस में वयोवृद्ध  नेता अभी भी लम्बी राजनीतिक पारी खेलने उत्सुक है तो भाजपा में वयोवृद्ध नेताओं की जरूर कमी परिलक्षित हो रही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उम्रदराज नेता अभी भी बड़ी जिम्मेदारी लेने तत्पर दिखाई दे रहे है।
कांग्रेस में सबसे वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा माने जाते है। 20 दिसम्बर 28 को जन्में वोरा कांग्रेस के कोषाध्यक्ष है तथा अविभाविजत म.प्र. के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री,उ.प्र. के राज्यपाल की जिम्मेदारी निभा चुके हैं अभी भी मुख्यमंत्री बनने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। दूसरे क्रम में बरसों तक केन्द्रीय मंत्री रहे विद्याचरण शुक्ल की गिनती होती है। 2 अगस्त 29 को जन्मे शुक्ल जी अभी भी दौड़ में शामिल है। पूर्व विधायक लक्ष्मण सतपथी (17 अगस्त 37) प्रोटेम स्पीकर बने ,वृद्ध महेन्द्र बहादुर सिंह (31 दिसम्बर 25) अभी भी स्वयं को युवा मानकर कोई भी जिम्मेदारी सम्हालने तैयार है।
कांग्रेस में दूसरी पंक्ति के नेताओं में पवन दीवान, (एक जनवरी 1945), अजीत जोगी (29 अप्रेल 46), सत्यनारायण शर्मा (17 जनवरी 44),महेन्द्र कर्मा (5 अगस्त 50), डा. रेणु जोगी (27 अक्टूबर 50), नंदकुमार पटेल ( 8 नवम्बर 53), डा. चरणदास महंत (31 दिसम्बर 54), रविन्द्र चौबे ( 28 मार्च 57) आदि नई जिम्मेदारी के लिये तैयार है।
भारतीय जनता पार्टी में वयोवृद्ध नेताओं की सक्रियता भी देखते ही बन रही है। विधानसभा में वरिष्ठ विधायक बद्रीधर दीवान 22 नवम्बर 29 को जन्मे हैं। वे पिछली विधानसभा में उपाध्यक्ष थे। इस बार अध्यक्ष बनने उत्सुक थे बाद में उन्हें सीआईडीसी का अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट कराया गया है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के साथ लगातार सक्रिय लीलाराम भोजवानी (24 जनवरी 41), गृहमंत्री ननकीराम कंवर (21 जुलाई 43) भी वरिष्ठ नेता हैं। वही इसके बाद राज्यसभा सदस्य तथा छग के पहले नेता प्रतिपक्ष नंदकुमार साय (1 जनवरी 46), वरिष्ठ सांसद रमेश बैस (2 अगस्त 48) का नंबर आता है।
वही भाजपा की दूसरी पंक्ति में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह (5 अक्टूबर 52), बृजमोहन अग्रवाल (1 मई 59), अमर अग्रवाल( 22 सितम्बर 63), चन्द्रशेखर साहू (2 जुलाई 56), सरोज पांडे (22 जून 68) आदि का नंबर आता है।
बस्तर फिर छला गया!
छत्तीसगढ़ के बस्तरवासियों को फिर रेल बजट में छला गया है। इस बार एक यात्री रेल की उम्मीद बस्तरवासी कर रहे थे पर बरसों की प्रतीक्षा, प्रतीक्षा ही साबित हुई। रेल लाईन के लिये सर्वे का झुनझुना ही उनके हाथों आया।
बस्तर के लिये दुर्ग से एक यात्री रेल चलाने का क्रम कुछ माह पूर्व हुआ था पर यह ट्रेन दुर्ग से रायपुर के बीच 7 घंटे के सफर को 16 घंटे में पूरा करती है। इस रेल का रास्ता उड़ीसा होकर ऐसे रास्तों से घुमा-फिराकर बनाया गया है कि कोई मजबूर या सैलानी ही इसमें यात्रा करना पसंद करता है, हां, किराया कम है यह प्रचारित करके बस्तरवासियों के छाव में मरहम लगाने का प्रयास किया जाता है। 1962 में बस्तर मुख्यालय जगदलपुर रेल्वे स्टेशन बनकर तैयार हुआ था। 1976 में बस्तर से किरंदुल से विशाखापट्नम तक रेल की सौगात मिली थी। यह दुनिया सबसे खूबसूरत रेलमार्ग माना जाता है। 471 किलोमीटर लम्बे इस रास्ते में 46 सुरंगे भी है। प्राकृतिक सौंदर्ययुक्त यह मार्ग काफी आकर्षक है पर अक्सर सुरक्षा के नाम पर बस्तर की इस एकमात्र रेल को रद्द भी किया जाता रहा है। बहरहाल नए रेल बजट में बस्तर को फिर छला गया है।
कहां गए एग्लो इंडियन
जनसंपर्क विभाग से सेवानिवृत्त अधिकारी तपन मुखर्जी के अनुसार सत्तर के दशक के आसपास तक बिलासपुर के रेलवे कालोनी के फैले हुए इलाके में बड़ी संख्या में एग्लो इंडियन परिवार निवास करते थे. इस समुदाय के लोग जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि मिली-जुली नस्ल के थे। उनकी त्वचा गोरी थी और आंखें ज्यादातर नीली। ये यहां रेलवे के अधिकारी कर्मचारी थे। ये रेलवे कालोनी के बंगलों में आबाद थे। अक्सर रेलवे के इलाके में घूमते-फिरते नजर आते थे। पूरी तरह से अंग्रेजीदां रहन-सहन भी अंग्रेजों के माफिक इसाई धर्म को मानते थे. इनकी मातृभाषा अंग्रेजी हुआ करती थी। और चर्च में आया जाया करते थे. अंग्रेजों की तरह इनका अपना क्लब था जहां नाच-गानों के साथ अंग्रेजों की तरह आमोद-प्रमोद करते थे। इनके बच्चे रेलवे के अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ते थे. बाद की पीढ़ी के कई लड़के-लड़कियां हमारे साथ कालेज में थे। इस पीढ़ी में बहुत कुछ भारतीयता थी इनमें बहुत ेतेजी से बदलाव आया. अंग्रेजी रीति-रिवाज रहन-सहन कमजोर पड़ते गए। एक तरह से बिखराव आया. कुछ से कलकत्ता से मुलाकात हुई. कईयों ने भारतीयों से शादी कर ली है और यहां रच-बस गये हैं अच्छी हिन्दी और बंगला बोलते है कुल मिलाकर भारतीय समाज में घुल-मिल गए है. पहले की तरह अलग पहचान काफी कम हो गई है. अंग्रेजों को भारत से गए 65 साल हो गये हैं जाते समय वे अपनी निशांनियां छोड़ गए. आजादी के बाद नस्ल की आबादी 3 लाख थी. अंग्रेज इन्हें अपनी पैत्रिक भूमि नहीं ले गए. ये भी भारत नहीं छोड़ना चाहते थे. मानसिक पेशोपेश में रहे और भारत में ही रह गये. ब्रिटेन ने भी इन्हें वापस बुलाने की कोई पहल नहीं की. फिर 1941 के बाद की जनगणना में इनकी गिनती नहीं की गई. 50 से 60 की दशक के बीच इन्होंने भारत से बाहर निकलना शुरू किया. ये यहां से कनाड़ा, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में बस गये. बहुत से अपने पैत्रिक देश ब्रिटेन चले गए. कुल मिलाकर यह कुनबा छितर-बितर हो गया. पश्चिम लंदन का साउथ इलाका इनसे आबाद है. जहां भारतीयों की मिली-जुली संस्कृति है. यहां अपना रूपया भी चलता है. भारत की ही तरह सड़क किनारे खोमचे है और भारतीय  भोजन के ढाबा-रेस्तरां भी. एक तरह से यह समुदाय समाप्ति की ओर है. तथा समाज निरंतर धूमिल पड़ता जा रहा है. बहरहाल एंग्लो इंडियन लोग सिमट गए है. अब वे स्थानीयता भी स्वीकार कर चुके हैं. भारतीयों में लगभग घुल-मिल चुके हैं. भारतीयों की अनेकता में एकता के वे महत्वपूर्ण सूत्र है.
खेती का रकबा घटा!
छत्तीसगढ़ को (धान का कटोरा) कहा जाता था पर अब यह उद्योग के उबलते कड़ाह के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहा है। सबसे आश्चर्य तो यह है कि औद्योगिकीकरण, खनिज उत्खनन, सड़क चौड़ीकरण, रहवासी क्षेत्र में वृद्धि के चलते कृषि का रकबा लगातार कम होता जा रहा है पर हर साल धान खरीदी बढ़ती जा रही है यह विरोधाभाष ही है।
सूत्र कहते हैं कि पिछले पांच सालों के भीतर प्रदेश में एक लाख 26 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि औद्योगिकरण और खनिज उत्खनन की भेंट चढ़ गई है। यहां खेतों की जोत का रकबा छोटा होकर औसतन 1.36 हेक्टेयर रह गया है। देश की नवी कृषि गणना रिपोर्ट के अनुसार 2005-2006 में प्रदेश में कृषि रकबा 52 लाख  10 हजार हेक्टेयर था जो नई गणना में यह रकबा घटकर 50 लाख 84 हजार हेक्टेयर रह गया है। पिछले 5 सालों में कृषि का रकबा कम हो गया है। आज की स्थिति में छत्तीसगढ़ में कृषि रकबा 8.26 प्रतिशत है जबकि इससे लगे मध्यप्रदेश में यह रकबा 12.19 फीसदी है। यह धान के कटोरे के लिये चिंता का विषय ही है।
और अब बस
एक वरिष्ठ आईएएस अफसर और एक वरिष्ठ मंत्री के बीच बढ़ती दूरी किसी से छिपा नहीं है। वरिष्ठ आईएएस अफसर का तो वे कुछ नहीं कर सके पर उनके बंगले की दीवार गिराकर ही खुश हो गये है।
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पार्टी से बगावत करनेवालों के लिये वापसी का रास्ता बंद है राहुल गांधी ने कहा है। कि एक टिप्पणी.. ऐसे में नोबेल वर्मा का क्या होगा !
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भाजपा का एक बड़ी नेत्री का बेमेतरा में सक्रिय होना चर्चा में है।

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