Tuesday, October 4, 2011

आइना ए छत्तीसगढ़

मैं परिंदा हूं कहीं रुकना मेरी फितरत नहीं,
फिर किसी मंजिल का सपना बुन रहा हूं आजकल

छत्तीसगढ़ के मुखिया डॉ. रमन सिंह ने नक्सलियों से हथियार छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अच्छी पहल की है। देश के लगभग 12 राज्यों में अपने पैर पसार चुके नक्सली आखिर चाहते क्या हैं, यही पता नहीं है। आईबी में डायरेक्टर रहने के बाद छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के राज्यपाल ई.एस.एल. नरसिम्हन ने हमसे एक साक्षात्कार में भी यही कहा था कि मैं समझ ही नहीं पाया कि नक्सली चाहते क्या हैं। गरीबों के उत्थान, भूमि सुधार और समाज कल्याण की बात करने वाले नक्सलियों ने अभी तक तो इस दिशा में कोई पहल नहीं की है। उल्टे उनकी हिंसक गतिविधियों से समाज और विकास विरोधी मानसिकता ही सामने आई है। सुदूर क्षेत्रों में सड़क, शाला, आश्रम भवन, पंचायत भवन, पुल-पुलिया, स्वास्थ्य केन्द्र उड़ाकर उन्होंने गरीबों का कौन सा हित किया है। यही समझ से परे है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रा के लिये केन्द्र और राज्य सरकार कई योजनाएं बनाती है और उसके लिये प्रतिवर्ष करोड़ों खर्च भी होता है। पर ईमानदारी से वह योजनाएं फील्ड में पहुंच नहीं पाती है। नक्सली प्रभावित क्षेत्र में भ्रष्टïाचार की चर्चा अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य बनने तक जारी है। कांकेर जिले में सूखा के समय बाढ़ राहत के नाम पर लाखों खर्च करने का मामला उठा था, जांच भी हुई पर क्या हुआ कुछ पता नहीं चला। नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कागजों में ही भवन, पुल-पुलिया बनने की चर्चा होती रहती है। वनो में अवैध कटाई, शिकार की बात सामने आती है दरअसल बस्तर में तो वन क्षेत्रों में एक तरह से नक्सली ही मालिक बन बैठे हैं। वन विभाग के कई योग्य अफसर दूसरे विभागों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय मालिक मकबूजा के नाम पर एक बड़ा घोटाला सामने आ चुका है जिसमें तत्कालीन कलेक्टर और कमिश्नर के बीच उपजा विवाद भोपाल मुख्यालय तक पहुंचा था। आदिवासियों का शोषण और उनके हक की लड़ाई के नाम पर नक्सलियों ने आदिवासियों की हमदर्दी हासिल कर अपनी राह बनाई और अब आदिवासियों के ही बड़े दुश्मन बन गये हैं।
वैसे डॉ. रमन सिंह नक्सलवाद की समस्या पर बहुत संजीदा हैं। सलवा जुडूम के नाम पर लम्बा संघर्ष नक्सलियों के खिलाफ चला, एसपीओ की तैनाती और सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद एसपीओ की भर्ती का मार्ग प्रशस्त करने में डॉ. रमन सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हाल ही में उन्होंने पुलिस के आला अफसरों से कहा है कि हर माह में कम से कम एक सप्ताह नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में गुजारें और ग्रामीणों के दुख-दर्द की जानकारी लेकर उसके निदान की पहल करें। वैसे यह सुझाव ही है कि बस्तर और राजनांदगांव क्षेत्र के लिये एक एडीजी स्तर के अधिकारी की बस्तर में तैनाती की जा सकती है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय राजनांदगांव में एक नक्सली आईजी की स्थापना हो चुकी है। यह भी तो सकता हैै कि बस्तर क्षेत्र में एक प्रभारी सचिव (आईएएस) की नियुक्ति कर दी जाए और वह प्रतिमाह कम से कम 10 दिन बस्तर में ही कैम्प करे। इससे एडीजीपी और सचिव स्तर के अधिकारी दोनों मिलकर नक्सल अभियान पर निगाह रखेंगे वहीं विकास योजनाओं की भी समय-समय पर समीक्षा करते रहेंगे। बहरहाल डॉ.रमन सिंह का नक्सलियों से मुख्यधारा में हथियार छोडऩे की पहल करना सरकार की नीयत को साफ करता है। यदि वास्तव में नक्सली आदिवासियों के हितचिंतक हैं तो उन्हें बातचीत की पहल करना चाहिए क्योंकि वार्ता से बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान निकलता है। वैसे नेपाल में माओवादियों ने चुनाव लडऩे की हिम्मत दिखाई है यदि बस्तर के आदिवासी उनके साथ है ऐसा वे मानते हैं तो चुनाव लड़कर अपनी लोकप्रियता साबित करने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं चुनाव जीतकर वे विधानसभा में पहुंचकर आदिवासियों की समस्याओं को अधिक मजबूती से उठा सकेंगे। देखना यह है कि मुख्यमंत्री की पहल को नक्सली किस रूप में लेते हैं।

पलायन अफसरों का!

छत्तीसगढ़ में आखिर आईएएस और आईपीएस रहना क्यों नहीं चाहते हैं? क्या राज्य सरकार में चल रही अफसर शाही इसके लिये जिम्मेदार हैं या अफसर अपनी उपेक्षा के चलते ऐसा करने मजबूर हैं। छत्तीसगढ़ में आंध्रप्रदेश कैडर के आईएएस पंकज द्विवेदी कुछ वर्षों तक प्रतिनियुक्ति पर रहे वे इसी राज्य में सेवाएं देना चाहते थे, क्योंकि उनके परिजन यही के हैं। विधानपुरुष के नाम पर चर्चित मथुरा प्रसाद दुबे के दामाद तथा कांगे्रस नेत्री नीरजा द्विवेदी के पति पंकज को आखिर आंध्रप्रदेश जाना ही पड़ा और हाल ही में उन्हें आंध्रप्रदेश का मुख्य सचिव बनाया गया है। उड़ीसा के मूल निवासी तथा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सुंदरनगर में स्थायी रूप से रह रहे बी के एस रे को वरिष्ठï होने के बाद भी मुख्य सचिव क्यों नहीं बनाया गया इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्हें योग्य होते हुए भी किसी भी पद के लिए उपयुक्त क्यों नहीं समझा गया इसका भी जवाब देने कोई तैयार नहीं है। हाल ही में केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति से मानव संसाधन मंत्रालय से प्रदेश लौटे वरिष्ठï आईएएस सुनील कुमार को एसीएस होने पर शालेय शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का प्रभार देकर सीमित कर दिया गया है। वैसे अभी तक प्रमुख सचिव या सचिव स्तर के अधिकारी यह काम देखते थे। प्रदेश के वरिष्ठï तथा अनुभवी आईपीएस अफसर प्रवीण महेंद्रु तो कभी छत्तीसगढ़ में आये ही नहीं वही राजीव माथुर अपनी उपेक्षा से नाराज होकर प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में चले गये। यहां उन्हें डीजीपी के योग्य नहीं समझा गया और बाद में वे हैदराबाद पुलिस अकादमी के संचालक बनाये गये यह पद आईपीएस अफसरों के लिये प्रतिष्ठïा का होता है। अभी भी आईपीएस अफसर बी के सिंह, स्वागत दास, रवि सिन्हा, जयदीप सिंह, अशोक जुनेजा, अमित कुमार, अमरेश मिश्रा प्रतिनियुक्ति पर है। वहीं बस्तर के आईजी टी जे लांगकुमेर और नेहा चंपावत भी प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले हैं। हाल ही में केन्द्रीय गृहमंत्रालय ने 1988 बैच के मुकेश गुप्ता, संजय पिल्ले तथा आर के विज को संयुक्त सचिव पद के लिये सूचीबद्घ (इम्पैनल) किया है हालांकि इनमें से किसी को भी राज्य शासन ने अपनी अनापत्ति नहीं दी है। सवाल यह उठ रहा है कि छत्तीसगढ़ में आखिर आईएएस, आईपीएस रहने इच्छुक क्यों नहीं है। क्या खेमेबाजी में लगे कुछ अफसर या राजनेताओं के करीबी इसके लिये जिम्मेदार हैं?

हमारे सांसद!

वोट फार इंडिया की 2010-11 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले अगस्त माह में मानसून सत्र में सवाल पूछने के मामले में छत्तीसगढ़ के सांसद 20वें स्थान पर रहे तो संसद में उपस्थिति के मामले में 22वें क्रम पर रहे हैं। डॉ. चरणदास महंत छत्तीसगढ़ से कांगे्रस के एक मात्र सांसद हैं वे 72 दिन चली संसद की कार्यवाही में 67 दिन हाजिर रहकर सबसे आगे रहे तो मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के विधानसभा के शामिल होने वाले लोकसभा राजनांदगांव के सांसद मधूसूदन यादव ने सबसे कम 23 दिन उपस्थिति दर्ज कराकर सबसे पीछे रहे। प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष तथा रायगढ़ के सांसद विष्णुदेव साय और आदिवासी अंचल नक्सली प्रभावित क्षेत्र कांकेर के सांसद सोहन पोटाई ने एक भी सवाल नहीं पूछा है। सुश्री सरोज पांडेय ने 48 दिन अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर सर्वाधिक 100 सवाल पूछे तो प्रदेश के सबसे वरिष्ठï सांसद रमेश बैस 66 दिन सदन की कार्यवाही में उपस्थित रहकर 77 सवाल पूछा। डॉ. चरणदास महंत ने भी 67 दिन की उपस्थिति दर्ज कराकर 77 सवाल पूछे। दिलीप सिंह जूदेव ने 47 दिन उपस्थित रहकर 81 सवाल पूछे तो कमला देवी पाटले ने 26, चंदूलाल साहू ने 19, मधूसूदन यादव ने 10, मुरारीलाल सिंह ने 10 सवाल पूछे। तेजी से बढ़ रहे छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र के प्रमुख हथियार प्रश्नकाल में ज्वलंत और बुनियादी समस्याओं को उठाने में प्रदेश के कुछ सांसदों की कम उपस्थिति और कम सवाल पूछने के लिये आखिर जनता बेचारी कर भी क्या सकती है। उसका काम तो पांच साल में एक बार मतदान कर सांसद चुनना ही है और उसके बाद केवल पांच साल का इंतजार ही करना उसकी नियति बन चुकी है।
और अब बस
(1)
छत्तीसगढ़ के करीब आधे मंत्रियों की क्लास गडकरी सर ने ले ली है और आधे की क्लास लेना जरूरी नहीं समझा है। मंत्री अभी तक गडकरी सर के परिणाम का इंतजार कर रहे हैं।
(2)
मंत्रिमंडल में फेरबदल डॉ. रमन सिंह की विदेश यात्रा के बाद होगा ऐसा संकेत मिला है। एक टिप्पणी:- मंत्रालय और फील्ड में पदस्थ अफसरों में खुशी की लहर दौड़ गई है।

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