Monday, January 17, 2011

आइना ए छत्तीसगढ़

मत कहो आकाश में कोहरा घना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है


छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम अभियान की अब एक तरह से मौत हो रही है। नक्सलियों के खिलाफ अपने पारंपरिक हथियार लेकर संघर्ष का शंखनाद करने वाले आदिवासियों को इस अभियान से क्या मिला यह तो नहीं कहा जा सकता है पर प्रदेश सरकार के मुखिया डॉ. रमन सरकार को काफी वाहवाही मिली यहीं नहीं डीजीपी विश्वरंजन भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्टï्रीय मंच में 'सलवा जुडूमÓ का बखान करने में पीछे नहीं रहते थे पर एक जनवरी को पुलिस मुख्यालय में आयोजित एक समारोह में इस अभियान से कन्नी करते नजर आये वे तो 'सलवा जुडूमÓ की मौत के सवाल पर इस अभियान को 'राजनीतिक अभियानÓ कहने में भी पीछे नहीं रहे।
छत्तीसगढ़ के नक्सली प्रभावित क्षेत्र बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ स्वस्र्फूत पहले आंदोलन की शुरूआत सन् 1991 में अबूझमाड़, नारायणपुर के आदिवासी नेता देवा सोढ़ी ने शुरू किया था। कुछ दिनों बाद नक्सलियों द्वारा उनकी हत्या के बाद यह आंदोलन वहीं समाप्त हो गया। वैसे दंतेवाड़ा के तत्कालीन पुलिस कप्तान वाई के एस ठाकुर, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक वी एस मरावी आदि ने भी नक्सलियों के खिलाफ जनजागरण आंदोलन की शुरूआत की थी पर उसे उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली थी। 4 जून 2005 को कुटरु ब्लाक के कटेली गांव में एक अभियान की शुरूआत हुई जिसे बाद में 'सलवा जुडूमÓ नाम दिया गया। आदिवासियों के स्वस्फूर्त इस आंदोलन को प्रारंभ में ही आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने हाईजैक कर लिया और बाद में मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह ने भी इस आंदोलन को प्रोत्साहित किया। इस समय यूएनओ से लौटे हिमाचल प्रदेश के आदिवासी समाज के ओ पी राठौर को पुलिस महानिदेशक बनाया गया और उनके कार्यकाल में सलवा जुडूम आंदोलन को काफी मदद मिली। सलवा जुडूम समर्थक और माओवादियों के बीच संघर्ष की नौबत भी आई और सलवा जुडूम समर्थक 640 गांवों के करीब 46 हजार लोग राज्य सरकार द्वारा मुख्यमार्ग के आसपास बनाये गये राहत शिविरों में रखा गया था। गीदम ब्लाक के दो राहत शिविरों में 1160, भैरमगढ़ ब्लाक के 8 राहत शिविरों में 9800, बीजापुर के 3 राहत शिविरों में 6 हजार, उसुर ब्लाक के 3 राहत शिविरों में 2 हजार, कोण्टा ब्लाक के 7 राहत शिविरों में 36 हजार 300 शिविरार्थी कभी रहते थे। बीजापुर-दंतेवाड़ा जिले के दोरनापाल सबसे बड़ा राहत शिविर था जहां 17 हजार 500 शिविरार्थी रहते थे तो उसुर में राहत शिविर में सबसे कम 273 लोग रहा करते थे।

वैसे राहत शिविरों में 45958 लोगों में 40108 शिविरार्थी, 3200 एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) 651 निशक्तजन तथा 1999 आत्मसमर्पित नक्सली रहने की बात राज्य सरकार ने भी स्वीकार की थी।

खैर बाद में नक्सलियों द्वारा राहत शिविरों पर हमला, सामूहिक हत्या करने के साथ एसपीओ के बढ़ते आतंक के चलते कई राहत शिविर धीरे-धीरे खाली होते रहे। कुछ शिविरार्थी तो पड़ोसी राज्य आंध्रप्रदेश, उड़ीसा आदि में जाकर रहने लगे हैं। तत्कालीन डीजीपी ओ पी राठौर की आकस्मिक मौत के बाद तो यह आंदोलन शिथिल पड़ता गया वहीं मानव अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा फर्जी मुठभेड़, एसपीओ को बिना प्रशिक्षण के हथियार देकर हत्या की छूट देने, नाबालिगों की एसपीओ के रूप में भर्ती आदि के मामले राष्टï्रीय मानव अधिकार आयोग और न्यायालय में ले जाने के बाद भी यहां की हालत लगातार बिगड़ती गई। एक बार तो तत्कालीन गृहमंत्री रामविचार नेताम ने विधानसभा में शिविरार्थी को 'शरणार्थीÓ तक कह दिया था हालांकि बाद में उन्होंने खेद भी प्रकट किया।
बाद में गृहमंत्री ननकीराम कंवर बने और डीजीपी के रूप में बरसो तक फील्ड से पृथक रहे आईबी में पदस्थ अफसर विश्वरंजन को 5 जुलाई 2007 को पदस्थ किया गया। उसके बाद केवल बयानबाजी ही चलती रही। गृहमंत्री और डीजीपी में बेहतर तालमेल नहीं होने के कारण नक्सली वारदात बढ़ी साथ ही सलवा जुडूम समर्थकों की हालत और खराब होने लगी। विश्वरंजन की पदस्थापना के बाद नक्सली वारदात बढ़ती ही गई नक्सलियों ने दंतेवाड़ा जेल बे्रक किया यह विश्व की सबसे बड़ी जेलबे्रक की घटना थी। राजनांदगांव के मानपुर में पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे को नक्सलियों ने शहीद कर दिया। ताड़मेटला में 75 सीआरपीएफ जवानों सहित एक प्रदेश पुलिस के कर्मचारी की नक्सलियों ने हत्या कर दी यह वारदात भी नक्सलियों द्वारा की गई सबसे बड़ी वारदात थी। वहीं नक्सलियों ने बस्तर में 16 टन अमोनियम नाइटे्रट लूट ली यह भी नक्सलियों देश में सबसे बड़ी विस्फोट को की लूट थी।
खैर सलवा जुडूम कैम्पों में अपै्रल 2010 से मुफ्त राशन देना बंद कर दिया गया वहीं आदेश दिया गया कि शिविरार्थी एक और 2 रुपए किलो चावल योजना का लाभ ले और खरीदें, पर कैम्प में रहने वाले रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण खरीदी में सक्षम नहीं थे। इधर राज्य सरकार ने शपथ पत्र भी दिया है कि वह सलवा जुडूम को आर्थिक मदद नहीं करेगी जाहिर है कि सलवा जुडूम के समर्थक अब न घर के रहे, न घाट के। नक्सलियों के दुश्मन बनने के कारण अब वे अपने गांव तो लौट सकते नहीं हैं। गांव का घर-बार, ढह गया, थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी बंजर हो गई है अब ये लोग कहां जाएंगे?

रात्रिविश्राम...!

छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन ने नक्सली प्रभावित क्षेत्र में कभी रात्रिविश्राम किया है यह याद नहीं है। वे तो किसी वारदात के बाद जाते हैं और लौट कर फिर बयानबाजी में लग जाते हैं, सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि नक्सलियों से निपटने सीआरपीएफ के स्पेशल डीजी विजय रमन को भी पर्याप्त मदद उस समय पुलिस प्रशासन ने नहीं की थी। हाल ही में सीआरपीएफ के डीजी तथा चंदन तस्कर वीरप्पन का सफाया करने वाले विजय कुमार लगातार नक्सली प्रभावित क्षेत्र बस्तर के प्रवास पर आ रहे थे वे केवल मुख्यालय में बैठकर बयानबाजी करने की जगह सुदूर बस्तर के अंचल में लगातार प्रवास कर सुरक्षाबल से बातचीत कर रहे हैं यही नहीं बस्तर में अभी तक 4 रात नक्सली प्रभावित क्षेत्र, सुरक्षाबल के कैम्पों में भी गुजार चुके हैं। एक बार तो उन्होंने प्रदेश के नक्सल एडीजी राम निवास के साथ एक बार एम्बुश में शामिल हो चुके हैं तथा राहत शिविर में रात्रिविश्राम कर चुके हैं। पर अब सीआरपीएफ के डीजी विजय कुमार की नक्सल प्रभावित क्षेत्र में सक्रियता भी कुछ अफसरों को रास नहीं आ रही है। पिछले प्रवास पर विजय कुमार की अगुवाई में एक डीएसपी स्तर का अधिकारी पुलिस प्रशासन की तरफ से मौजूद था हां उनकी प्रदेश से वापसी के समय जरूर एक बड़े अफसर विदा करने पहुंचे थे।

जांच अधिकारी बने नवानी

सलवा जुडूम की मौत के लिये कुछ ऐसे अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जो दूसरे प्रदेशों के हैं तथा नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में लम्बे समय तक पदस्थ रहे हैं। पिछले 3 सालों में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम आंदोलन के लगातार कमजोर होने के पीछे क्या कारण है, क्या कुछ अधिकारियों की इस में भूमिका थी, कुछ वामपंथी विचारधारा के लोग इसमें शामिल थे? जब यह शिकायत गृहमंत्री ननकीराम कंवर को मिली तो उन्होंने कुछ बिंदुओं की जांच कराने का आदेश दिया है और जांच का जिम्मा भी डीजीपी होमगार्ड अनिल नवानी को सौंपा हैं। अब वे विश्वरंजन जैसे वरिष्ठï आईपीएस अफसर के रहते उनके मातहत पुलिस अफसरों की 'सलवा जुडूमÓ में भूमिका की कितनी जांच कर पाएंगे इसका पता बाद में ही चलेगा।

और अब बस

(1)
पुलिस मुख्यालय से कुछ अफसर प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली जाने प्रयासरत हैं पर एक राज्य स्तर का अफसर अपने गृहक्षेत्र से उपचुनाव लडऩे पर तैयारी में है। वह कांगे्रस और भाजपा नेताओं के संपर्क में है।
(2)
राज्य पुलिस सेवा के अफसर डीपीसी की लगातार मांग कर रहे हैं पर जब से विश्वरंजन डीजीपी बने हैं डीपीसी हो ही नहीं सकी है। एक टिप्पणी:- साहब को पता नहीं क्यों राज्य संवर्ग अधिकारियों से चिढ़ सी है?

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