Wednesday, December 1, 2010

छत्तीसगढ़ आईना
दोस्तों की बेनियाजी देखकर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी
आ गया अब जूझना हालात से
वक्त की पेचीदगी, अच्छी लगी
छत्तीसगढ़ के तत्कालीन गृहमंत्री रामविचार नेताम ने विधानसभा में बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ शुरू 'सलवा जुडूम के लोकयुद्घÓ में लालआंधी के रूप में चर्चित नक्सलियों से टकराने की जुर्रत कर अपना घर बार छोड़कर सुरक्षा कैम्प में रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों को 'शिविरार्थीÓ की जगह 'शरणार्थीÓ कह दिया था और कांगे्रस ने खूम हंगामा मचाया था। अब 'शरणार्थीÓ शब्द का प्रयोग नेताम ने जानबूझकर किया था या उनके मुंह से निकल गया था यह तो वहीं बता सकते हैं पर अब जमीनी हकीकत यह है कि सलवा जुडूम के योद्घा हों या सुरक्षा शिविर में रहने वाले ग्रामीण हों अब शरणार्थी की हालत में ही पहुंच चुके हैं।
निर्वासन, विस्थापन या परायेपन का एहसास क्या होता है इसका सही जवाब तो सलवा जुडूम शिविर में किसी तरह जीवन गुजारने वाले ग्रामीण आदिवासी ही दे सकते हैं। बस्तरवासी कुछ आदिवासियों ने तीर-धनुष, टंगियानुमाहथियार, लकड़ी के ल_ï लेकर ए. के. -47 जैसे संगीन एवं आधुनिक हथियार लेकर घूमने वाले नक्सलियों से दो-दो हाथ करने का पक्का इरादा किया था और इसमें उन्हें उन्हीं की माटी में जन्मे आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने पूरा सहयोग करने का यकीन दिलाया था। यहीं नहीं छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया डॉ.रमन सिंह ने भी उनके साथ हमेशा खड़े रहने का भरोसा दिलाया था। पहले तो उन्हें सुरक्षा शिविरों में ठहराया गया, उनके रहने भोजन सहित सुरक्षा की भी व्यवस्था की गई, नक्सलियों के खिलाफ स्वास्र्फूत आंदोलन सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों की हिटलिस्ट में आये कई गांवों के करीब 45 हजार ग्रामीण अपना घर-बार, पुरखों की डेहरी, गाय तथा अन्य जानवर छोड़कर सरकार द्वारा मुख्य सड़क के करीब बनाये गये राहत शिविरों में भी रहने राजी हो गये। राज्य सरकार ने भी 45 हजार लोगों के रहने सहित भोजन आदि की व्यवस्था भी सरकार करती थी। गांव छोड़कर राहत शिविरों पर रहने आने के पीछे यहीं मजबूरी थी कि गांव में रहने पर नक्सली आकर मार सकते थे। राहत शिविर में पहले तो सुरक्षाबल को सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई पर धीरे-धीरे विशेष पुलिस अधिकारी ही राहत शिविर के मुखिया बन गये और उनका आतंक बरपने लगा। ग्रामीणों के सामने यही मजबूरी थी कि गांव तो लूट चुके हैं, बरबाद हो चुका है, नक्सलियों का भय बना हुआ था पर शिविरों में सुरक्षा बल सहित विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) का अत्याचार बढ़ता जा रहा था फिर नक्सलियों के भी कुछ राहत शिविरों में हमला करके अपना आतंक बरपाना शुरू कर दिया। बाद में तो कई ग्रामीण आदिवासी राहत शिविर छोड़कर पास के प्रदेश मसलन उड़ीसा-आंधप्रदेश में शरण लेने मजबूर हो गये। अब तो राहत शिविरों में गिनती के ही ग्रामीण बचे हैं।
हाल ही में सरकार ने भी सलवा जुडूम शिविरों में आर्थिक मदद में हाथ खींच लिया है। सूत्रों की मानें तो सरकार ने सलवा जुडूम को आर्थिक मदद नहीं करने का निर्णय ले लिया है। हालांकि इसकी अधिकृत पुष्टिï नहीं हो सकी है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर बस्तर के स्कूल, आश्रमों सहित कुछ अन्य सार्वजनिक भवनों से सुरक्षाबल को हटाने के आदेश भी मुख्य सचिव ने दे दिए हैं।
सबसे बड़ी चर्चा तो यह है कि सलवा जुडूम आंदोलन के नाम पर देश-विदेश में चर्चा में आये नेताओं ने 'आपरेशन ्रग्रीनहण्टÓ चालू करने पर सलवा जुडूम समर्थको से न तो चर्चा करना जरूरी समझा न ही उन्हें आपरेशन ग्रीनहण्ट का हिस्सा बनने ही दिया। अब हालत यह है कि बस्तर का 'सलवा जुडूमÓ दम तोड़ रहा है। सरकार ने तो हाथ खींच लिया ही है।
वहीं नेता प्रतिपक्ष तथा कभी बस्तर टाईगर के नाम से चर्चित महेंद्र कर्मा भी विधानसभा चुनाव पराजय के बाद कुछ कम सक्रिय हैं हाल ही में एक नया संगठन बनाना और उसकी बैठक में कर्मा का शामिल होना भी चर्चा में है। हालत यह है कि सलवा जुडूम समर्थक ग्रामीण तथा राहत शिविर में रह रहे लोग अपने गांव वापस नहीं हो सकते क्योंकि वहां तो कुछ बचा ही नहीं है। खेत बंजर हो चुके हैं, पुरखों की डेहरी, छोटी-मोटी झोपड़ी, पुराना कुछ झोपडिय़ों का गांव वीरान हो चुका है, मवेशी बचे नहीं है नक्सलियों का डर अभी भी बरकरार है और राहत शिविरों की व्यवस्था भी बिगड़ चुकी है। सरकार के हाथ खींचने से अब वहां की हालत दयनीय हो चुकी है। कभी राहत शिविरों में मुख्यमंत्री राज्यपाल सहित बड़े आला अफसर आते थे पर अब तो वहां वीरानी है। हाल ही में प्रशासनिक मुखिया जाय उम्मेन सहित कई विभागों में प्रमुख सचिव, सचिव आदि जगदलपुर बस्तर विकास की एक जरूरी बैठक में शामिल होने पहुंचे थे पर किसी ने भी राहत शिविर जाने में रुचि नहीं ली। नई सरकार बनने के बाद गृहमंत्री या कोई अन्य मंत्री या डीजीपी विश्वरंजन एक-दो बैठक में आये या किसी नक्सली वारदात के बाद ही आये पर राहत शिविर की तरफ किसी ने रुख नहीं किया, वहां की व्यवस्था नहीं देखी। राहत शिविर में रहने वालों के लिये पक्के मकान बनाने की घोषणा केवल सपना ही साबित हुई, राहत शिविरवासियों को रोजगार मूलक प्रशिक्षण देने की योजना का हश्र क्या हुआ यह राहत शिविर में जाकर देखा जा सकता है। कुल मिलाकर अपने ही देश-प्रदेश तथा क्षेत्र में सलवा जुडूम से जुड़े लोग शरणार्थियों सा जीवन अब नहीं जी पा रहे हैं।
कब तक होते रहेंगे प्रयोग!
लगभग 30 सालों से माओवादी दहशत से साल के वनों से आच्छांदित, सुदर छटा के लिये चर्चित बस्तर में अब कदम-कदम पर आतंक अपने पांव पसारे बैठा है। किस कदम पर मौत का सामना हो जाए कोई नहीं जानता है। हालत तो अब यह हो गई है कि लोग बस्तर में न अपनी बेटी देना चाहते हैं और न ही वहां से बहु लाना चाहते हैं। हालत यह है कि बस्तर में सामान्य परिवार के कई लोग राजधानी के आसपास अपना ठिकाना बना चुके हैं। बस्तर में भाजपा सरकार 'काबिजÓ होने के बाद निश्चित ही नक्सली वारदातों में वृद्घि परिलक्षित हुई है। पहले विदेश से लौटने के पश्चात ओपी राठौर को सीधे डीजीपी बना दिया गया और उनकी ही देखरेख में 'सलवा जुडूमÓ आंदोलन पला, बढ़ा फिर बस्तर के आदिवासी युवकों (कम उम्र के बच्चों) को भी विशेष पुलिस अधिकारी बनाकर उन्हें बिना प्रशिक्षण या लायसेंसों के बंदुक देकर नक्सलियों के उन्मूलन का प्रयोग चला, एसपीओ पर फिर कई तरह के आरोप भी लगे। ओ पी राठौर के कार्यकाल में ही पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में कारगार भूमिका निभाने वाले पूर्व पुलिस अधिकारी के पी एस गिल को सरकार का सलाहकार नियुक्त किया गया। उन्होंने कुछ सुझाव भी दिये पर उन्हें पूरे अधिकार सौंपे नहीं गये और बाद में सलाहकार पद से हटने के बाद उन्होंने पुलिस सहित सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किये। ओ पी राठौर की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात केन्द में आईबी (इंटेलीजेन्स ब्यूरो) में लम्बे समय तक कार्य करने वाले विश्वरंजन को मनाकर छत्तीसगढ़ लाकर डीजीपी का प्रभार सौंपा गया। इनके कार्यकाल में तो कई रिकार्ड बने। फील्ड का अनुभव लम्बे समय तक नहीं होना भी उनके कार्यकाल पर अंगुली उठाता है, फिर उनके गृहमंत्री से छत्तीस के संबंध भी चर्चा में है। एक साथ 75 सीआरपीएफ के जवानों की शहादत, पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे की नक्सलियों द्वारा हत्या, बस्तर में नक्सलियों द्वारा सबसे बड़ी बारुद लूट ने भी रिकार्ड बनाया। वैसे बृजमोहन अग्रवाल को हटाकर आदिवासी वर्ग से पहले रामविचार नेताम फिर ननकीराम कंवर को गृहमंत्री बनाना भी नया प्रयोग था। विश्वरंजन के कार्यकाल में पुलिस अफसरों के बीच गुटबाजी की भी चर्चा अक्सर सुनाई देती है। वैसे अभी तक प्रदेश को नक्सली प्रभावित क्षेत्र मानकर ही पहले राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय (पूर्व पुलिस महानिदेशक बिहार) के एम सेठ (पूर्व सैन्य अधिकारी), ईएसएल नरसिम्हन (पूर्व आईबी प्रमुख), को राज्यपाल बनाया और अभी शेखर दत्त (पूर्व आईएएस अधिकारी तथा रायपुर-बस्तर संभाग में कमिश्नर का दायित्व सम्हाल चुके) को पदस्थ किया है लोग इसे भी केन्द्र का प्रयोग ही मानते हैं। वैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में लम्बे समय तक फील्ड में पदस्थ संतकुमार पासवान को जेल में सीमित करना भी सरकार का प्रयोग ही हो सकता है। सरकार के प्रयोग के चलते ही राजीव माथुर प्रदेश छोड़कर चले गये। अनिल नवानी को होमगार्ड, बस्तर में आईजी की जिम्मेदारी सम्हालने वाले एडीजी अंसारी को लोक अभियोजन, बस्तर के पुलिस अधीक्षक रहे जीपी सिंह को खेल संचालन बनाना, कभी भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पदस्थापना नहीं होने वाले अफसर राजेश मिश्रा को प्रवक्ता बनाना निश्चित ही सरकार का नया प्रयोग हो सकता है।
और अब बस
(1)
बस्तर में पुलिस महानिरीक्षक लॉगकुमेर का सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है एक टिप्पणी- पहले तो डीएम अवस्थी का भी कोई विकल्प नहीं है यह कहा जाता था?
(2)
रायपुर के कलेक्टर रोहित यादव और पुलिस कप्तान दीपांशु काबरा पहले नक्सली प्रभावित क्षेत्र में रह चुके हैं, इसलिए राजधानी में नक्सलियों के पहुंचने की खबर से लोगों को चितिंत होने की जरूरत नहीं है।
(3)प्रदेश की कानून व्यवस्था से चितिंत होकर मुख्यमंत्री कल सभी आईजीएसपी की बैठक ले रहे हैं। एक टिप्पणी-पहले गृहमंत्री, डीजीपी विवाद का हल तो सोचें?

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