हिन्दुस्तान सबसे बड़ा प्रजातंत्र होने के बावजूद दुनिया का 72वां सबसे भ्रष्टï देश है। दुनिया में 86 ऐसे देश हैं जहां भारत से कम भ्रष्टïाचार है। आजादी के बाद से ही हम भ्रष्टïाचार से जूझ रहे हैं। वैसे भ्रष्टïाचार के खिलाफ कारगर कानून बनाने की योजना 1968 से चल रही है पर 42सालों बाद भी हम अभी कोई कारगर निर्णय नहीं ले सके हैं।
भ्रष्टïाचार के खिलाफ आमजन भी आक्रोशित था और है भी किशन बाबूराव हजारे उर्फ अन्ना हजारे का अनशन भ्रष्टïाचार के खिलाफ आम लोगों के क्रोध की अभिव्यक्ति ही साबित हुआ है। अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल को लेकर समूचे देश में तरह-तरह से अनशन या विरोध का सिलसिला शुरू हो गया है। देश की युवा पीढ़ी सहित अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे लोगों की भागीदारी अधिक रही। समूचे देश की तरह ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लेकर आदिवासी अंचल दंतेवाड़ा, कांकेर हो या सरगुजा का सुदूर क्षेत्र, औद्योगिक नगरी भिलाई, कोरबा की बात हो सभी जगह अन्ना के समर्थन तथा सरकार के विरोध के स्वर उभरे थे। वैसे अन्ना टीम और सरकार के बीच भी सरकारी लोकपाल-जनलोकपाल के मुद््दे पर मतभेद उभरे थे।
दरअसल लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में ब्यूरोक्रेसी से लेकर जजों के साथ-साथ प्रधानमंत्री कार्यालय भी हो इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन लोकपाल को शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है, कानून बनाने का काम संसद का है, शासन करने का अधिकार कार्यपालिका का है और न्यायपालिका को गलतियों की सजा देने का हक है। यही प्रजातंत्र का आधार है, लोकपाल को क्या-क्या अधिकार मिले और क्या नहीं मिले, इस बात पर देश व्यापी बहस की जरूरत है। बहस के बाद ही लोकपाल का अधिकार तय होना चाहिए। लोकपाल के अधिकारों की वजह से प्रजातंत्र का संतुलन न बिगड़े यह भी देखना जरूरी होगा।
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि लोकपाल देश की सबसे शक्तिशाली संस्था बन जाएगा क्या इससे सरकार के कामकाज प्रभावित होने का खतरा नहीं पैदा हो जाएगा। क्या सर्वोच्च न्यायालय को यह संस्था 'बाईपासÓ कर जाएगी? कुछ लोगों को यह भी चिंता है कि भ्रष्टïाचार के खिलाफ यह आंदोलन कहीं प्रजातंत्र विरोधी और विकास विरोधी मुहिम न साबित हो। वैसे प्रजातंत्र और राजनीति के लिये लोकपाल जैसी संस्था नई नहीं है। दुनिया के 50 से अधिक देश ऐसे हैं जहां लोकपाल जैसी संस्था मौजूद है। अंगे्रजी में इसे 'ओम्बड्समैनÓ कहते हैं। इसका मतलब है शिकायत जांच अधिकारी। 'ओम्बड्समैनÓ उस अधिकारी को कहा जाता है जो आमजनता की शिकायत पर किसी भी मामले की जांच करता है इसे सरकार या संसद द्वारा नियुक्त किया जाता है। आधुनिक युग में इसे सबसे पहले 1809 में स्वीडन में लागू किया गया। नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड जैसे विकसित प्रजातंत्र में ओम्बड्समैन को विशेष अधिकार मिला है। वह सरकार से कोई भी कागजात, जानकारी प्राप्त कर सकता है, किसी भी गड़बड़ी के अंदेशे पर वह बिना किसी शिकायत के जांच आदेश कर सकता है। भ्रष्टï और गैर कानूनी काम करने वाले अधिकारियों को सजा दिला सकता है। इन देशों में सरकारी महकमों में भ्रष्टïाचार नहीं के बराबर है। अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा बनाया गया जनलोकपाल इन्हीं देशों के कानून की प्रतिलिपि है।
बहरहाल अन्ना हजारे के आंदोलन की सफलता की पृष्ठïभूमि सरकारी महकमों के घोटाले, ए राजा, कलमाड़ी, नीरा राडिया, येदूयरप्पा जैसे लोगों ने ही तैयार की है। भ्रष्टïाचार के खिलाफ आम आदमी शुरू से परेशान है। संसद में सवाल पूछने कुछ सांसदों को स्टिंग आपरेशन के तहत बेनकाब किया गया है। छत्तीसगढ़ के एक सांसद प्रदीप गांधी भी ऐसे लोगों की सूची में शामिल थे। एक पूर्व मंत्री जो पिछले विधानसभा चुनाव में एक मुद््दा के रूप में उभरा था उसे फिर नया पद दिया गया है।
छत्तीसगढ़ में खाद-बीज खरीदी, दवा एवं उपकरण खरीदी, बिजली की खरीदी बिक्री, डामर घोटाला, सड़क निर्माण में अनियमितता, नियुक्ति, पदोन्नति में घोटाला, पाठ््यपुस्तकों के प्रकाशन, कागज खरीदी आदि में अनियमितता की शिकायत आम हो रही है। कभी अजीत जोगी सरकार को घोटालों की सरकार साबित करने पर तुले तत्कालीन विपक्षी भाजपा के सदस्यों ने अपनी सरकार बनने के बाद यहां भी घोटालों की बात सामने आने पर चुप्पी साध रखी है। अब विपक्ष की भूमिका निभा रही कांगे्रस का हमला जारी है। वैसे अन्ना के आंदोलन की आंधी का असर यदि राजधानी रायपुर से आदिवासी अंचल बस्तर, पेंड्रारोड, जशपुर में भी दिखाई दे रहा है तो यह सरकार के लिये चिंतन का कारण हो सकता है।
1968 से लंबित
भ्रष्टïाचार के खिलाफ लोकपाल जैसे कारगर कानून बनाने की योजना श्रीमती इंदिरा गांधी के समय से चल रही है। 1968 में पहली बार संसद में लोकपाल विधेयक लाया गया उसके बाद 1971, 77, 85, 89, 96, 98 और2001 में भी यह विधेयक लाया गया पर हर बार राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण यह पारित नहीं हो सका। कांगे्रस की केन्द्र सरकारों में ही नहीं विपक्ष की सरकार जब केन्द्र में काबिज थीं तब भी इसे पारित नहीं कराया जा सका। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भी 98 तथा 2001 में बिल लोकसभा में आया पर पारित नहीं हो सका। दरअसल लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होते ही बिल निरस्त हो जाता था और फिर अगली लोकसभा में उसे लाने की तैयारी शुरू हो जाती थी।
छत्तीसगढिय़ा योग्य नहीं?
छत्तीसगढ़ के पूर्वजों ने 'अपना छत्तीसगढ़Ó की कल्पना की थी। छत्तीसगढ़ राज्य तो मिला पर 'अपना छत्तीसगढ़Ó नहीं मिल सका।
छत्तीसगढ़ के मूल निवासी रहे वासुदेव दुबे प्रदेश के सबसे वरिष्ठï आईपीएस अफसर रहे पर उन्हें पुलिस महानिदेशक नहीं बनाया गया। अपने कार्यकाल में सबसे लम्बा समय छत्तीसगढ़ में गुजारने वाले वरिष्ठï आईएएस अफसर बी के एस रे को मुख्य सचिव बनना नसीब नहीं हुआ उनकी जगह उनसे 5 साल जूनियर जॉय उम्मेन को मुख्यसचिव बनाया गया जबकि वासुदेव दुबे दुर्ग में ही रह रहे हैं वहीं बी के एस रे सुंदरनगर में रह रहे हैं। इन दोनों छत्तीसगढिय़ा अधिकारियों को सरकार ने सेवा निवृत्ति के बाद भी किसी भी पद के लिये योग्य नहीं समझा। हाल ही में लोकसेवा आयोग छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष पद पर प्रदीप जाशी की नियुक्ति कर दी गई क्योंकि वे भाजपा के एक वरिष्ठï नेता के रिश्तेदार हैं। वैसे इस पद के लिये पुलिस अफसर विश्वरंजन, मुख्यसचिव जॉय उम्मेन तथा आईपीएस आनंद तिवारी के भी नाम चर्चा में थे। एक पूर्व सांसद ने तो आनंद तिवारी को अध्यक्ष बनाने का आश्वासन भी दे दिया था। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के दूसरी बार कुलपति बनाये गये सच्चिदानंद जोशी का छत्तीसगढ़ से क्या संबंध रहा है। पूर्व में रविवि के कुलपति डॉ. लक्ष्मण चतुर्वेदी (आजकल बिलासपुर केन्द्रीय विवि के कुलपति) को किस के कहने पर कुलपति बनाया गया था? एक तरफ तो दूसरे प्रदेशों के लोगों को महत्वपूर्ण नियुक्ति दी जा रही है वहीं आम छत्तीसगढिय़ा कहां है? पुलिस या प्रशासन में छत्तीसगढ़ के रहवासी आईएएस, आईपीएस या राज्य प्रशासनिक, पुलिस सेवा के अधिकारियों की कमी नहीं है पर उनमें से कितने महत्वूपर्ण पद पर पदस्थ हैं? दंतेवाड़ा, बस्तर में तो अब आंध्र प्रदेश के रहने वालों की पदस्थापना का क्रम शुरू हो गया है। डॉ. रमन सिंह के इस कार्यकाल में प्रदेश के सभी जिलों में कलेक्टर और पुलिस कप्तान कहां के मूल निवासी हैं यह किसी से छिपा नहीं है क्या छत्तीसगढिय़ा अफसर अपना छत्तीसगढ़ सम्हालने में सक्षम नहीं है? बहरहाल छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में (नये बने जिले सहित) आईएएस, आईपीएस तथा प्रमोटी अफसरों का तालमेल बनाकर ही पदस्थापना करने का प्रयास होना चाहिए। अन्यथा अपने ही 'राज्यÓ में उपेक्षित का दर्द उठाने वाले अफसर निश्चित ही और अधिक कुंठा का शिकार होंगे वहीं किसी भी नियुक्ति के पहले छत्तीसगढिय़ों को प्राथमिकता का भी प्रावधान रखा जाना चाहिए।
और अब बस
(1)
अन्ना हजारे के आंदोलन पर एक एसएमएस चर्चा में रहा-घर की महिला का कुछ दिन घर से बाहर होने पर घर की स्थिति क्या होती है कोई कांगे्रसी नेताओं से पूछे? (सोनिया गांधी के विदेश पर होने पर)
(2)
एक पूर्व मंत्री को एक महत्वपूर्ण पद देने पर एक टिप्पणी:- जीते विधायकों को मंत्री बनाने पर तो संविधान की अड़चन है पर हारे मंत्रियों को पद देना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है।
(3)
भ्रष्टïाचार और महंगाई के लिये केन्द्र सरकार दोषी है या प्रदेश सरकार! जब पता लगेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
Monday, August 29, 2011
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