आइना ए छत्तीसगढ़
अंगुलियां, थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया, राह पे लाया था जिसे
उसने पोंछे नहीं अश्क मेरी आंखों से
मैनें खुद रो के बहुत देर हंसाया था जिसे
कन्या भ्रूण हत्या जहां एक ओर गंभीर समस्या बनती जा रही है वहीं इस कुप्रथा को रोकने वाले कानून की खामियों का पता लगाकर इसे प्रभावी ढंग से लागू करने के संबंध में राष्टï्रीय महिला आयोग की सिफारिशें भी अमल में नहीं आ रही है। छत्तीसगढ़ राज्य महिला आयोग तो इस दिशा में सक्रिय ही नहीं है। प्रदेश में हाल ही में न्यायधानी बिलासपुर में केन्द्र के स्वास्थ्य मंत्रालय की एक टीम ने लिंग परीक्षण करने वाले एक संस्थान पर छापा मारकर आवश्यक कागजात जब्त कर लिये हैं वहीं कोरबा में तो एक अस्पताल में कुछ मानव भ्रूण भी जब्त किये गये हैं। वैसे छत्तीसगढ़ में कुछ बड़े शहरों सहित अब तो छोटे शहरों में भी 'लिंग परीक्षणÓ की सुविधा चोरी-छिपे शुरू होने की जानकारी मिली है। वैसे छत्तीसगढ़ में एक हजार पुरुष पर 989 महिला का अनुपात है पर जिस तरह महिला भू्रण की हत्या का दौर जारी है उससे पुरुष-स्त्री संतुलन भविष्य में बिगड़ जाये तो कोई आश्चर्य नहीं है। अभी हरियाणा राज्य में यह अनुपात गड़बड़ा गया है।
पिता-पुत्री के बीच भावुकता पूर्ण संबंधों को दर्शाने वाले अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। वैसे भी बेटी अपने पिता के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील रहती है। ससुराल में रहकर भी वह पिता को विस्मृत नहीं कर पाती है। पिता के दुख दर्द को वह गहराई से समझती है। बुंदेली का एक लोकगीत है...'कच्ची ईंट बाबुल देहरी न धरियो, बिटिया न दईयो विदेशÓ।
पुत्री कहती है कि कच्ची ईंट से देहरी न बनाना। आते-जाते देहरी ढ़ह सकती है... और पुत्री को दूर देश में नहीं ब्याहना। इसी लोकगीत में माता और पुत्री, पिता-पुत्री, भाई-बहन और भौजाई, ननद के रिश्ते स्नेह संबंधों का हवाला दिया गया है। मां कहती है बेटी! मायके बराबर आते-जाते रहना, पिता कहता है-समय अवसर पर मायके जरूर आना! भाई कहता है कि बहन बिन बुलाये घर जब चाहे तब न आ जाना। भौजाई (भाभी) कहती है कि ननद! अब मायका तुम्हारा नहीं है।
बेटी और बाबुल के बीच संवादी लोकगीतों की छत्तीसगढ़ में भी भरमार है। बेटी संवेदनशील होती हैं-अपने परिवेश के प्रति! वह अपनी चिंता, अपना प्रतिरोध बाबुल के खाते में दर्ज कराती है। द्वार पर नीम को बाबुल काट रहे हैं, बेटी इस दुर्घटना से आहत है-वह कटते नीम पेड़ के पक्ष में खड़ी हो जाती है। वह नीम के पेड़ का पक्ष इसलिये भी करती है क्योंकि उस पर चिडिय़ा का बसेरा है। नीम का पेड़ कट जाने से चिडिय़ा कहां रहेगी? और चिडिय़ा नहीं रहेगी तो घर का आंगन को सुबह-सुबह कौन चहचहाट से भरेगा। बेटी की असली दोस्त तो वही चिडिय़ा है। आखिर बेटी को यह घर कभी न कभी छोड़कर जाना है- जैसे चिडिय़ा अपना घोसला छोड़कर चली जाती है। बेटी तभी तो अपने पिता से कहती है 'हम तो बाबुल तोरे आंगन की चिडिय़ाÓ बेटी की वेदना का विस्तार बड़ा व्यापक है। बचपन में उसने पिता की तरह हर जरूरतों को जाना-समझा है। पिता के लिए बेटी अनकही अनिवार्यता है। बेटी अपने पिता के स्वाभिमान से परिचित है-लेकिन वह जानती है कि उसके बाबुल का सिर विवाह मंडप में अपने समधी के सामने झुकेगा। बेटी के प्रति पिता की उदार आत्मीयता उसे सिर झुकाने मजबूर करती है। पिता आखिर पिता है, उसकी पीठ अपने बच्चों के लिये सदैव खेलने का मैदान रही है, उसकी छाती सदैव बच्चों की परेशानियों को ठेलने के लिये शिला बनकर अड़ी रहती है। उसके हाथ सदैव बच्चों की अंगुलियां पकड़कर उसे आगे बढ़ाने के लिए उतावले रहते हैं उसके पांव अपने बच्चों की यात्रा में शामिल होकर राहत देने में तत्पर रहते हैं। पिता की आंखों के स्वप्न बेताब हैं, बच्चों की आंखों में उन्हें झिलमिलाते हुए देखने के लिए और पिता उतार देना चाहता है, अपने समस्त अनुभवों को। बच्चों की आत्मा में पिता, सिर का आकाश है, पैरों की जमीन है। पर आजकल बच्चों और पिता के मायने बदलने लगे हैं। कुछ पिता लड़की का बाप होना नहीं चाहते हैं क्योंकि बाजारु समय में पिता दामादों की बोलियां लगाते-लगाते हलाकान हैं और यही देखकर ही कुछ पिता लिंग परीक्षण कराकर अजन्मी बेटी को इस दुनिया में आने से रोक रहे हैं। कुछ चिकित्सक इसमें इनके सहभागी भी हैं। जहां तक लड़कों की बात करें तो उनके लिये तो आजकल पिता एक 'पैकेजÓ बन गया है। जन्म दिया है तो उनकी जरूरतों को पूरा करने का ठेका भी पिता के पास माना जा रहा है। आजकल पिता अपनी संतानों के लिये आकाश-पाताल एक कर रहा है वह बच्चों के लिये स्वयं बिकने तैयार है उसका समस्त अर्जन-उपार्जन संतान केंद्रित हो रहा है। सवाल यह उठ रहा है कि 'दहेज दानवÓ से मुकाबला करने सरकार या समाज क्या कदम उठा रहा है। लिंग परीक्षण कराने वाले तथा भू्रणहत्या के लिये दोषी मां-बाप या संबंधित चिकित्सक या अन्य को क्या सजा समाज या सरकार ने तय की है ऐसे लोगों का समाज बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता है?
खैर समाज में व्याप्त भ्रष्टïाचार के लिये सामाजिक व्यवस्थाएं भी बड़ी दोषी है। बच्चों के जन्म से लेकर लालन-पालन, महंगी पढ़ाई, दहेज लेना और देना आजकल एक शिष्टïाचार बन चुका है। यही कारण है कि कुछ भारतीय बाप 'मायाजोडूÓ हो गये हैं। आगामी सात पीढिय़ों के लिये धन समेटने वाला बाप भ्रष्टïाचार की अनेक गलफासियों के कारण बेदम हो गया है। अरबों-खरबों का घोटाला नित्य सामने आ रहा है। लेकिन संतान सुख की काल्पनिक अनुभूति में डूबे पिता कहां समझ पाते हैं कि 'पूत कपूत तो का धन संचयÓ पूत सपूत तो का धन संचय। बहरहाल बेटियां तो फिर भी ससुराल जाकर पिता को याद करती हैं पर बेटा तो मां-बाप को घर से ही निकाल देता है ऐसे कई उदाहरण मिलते भी हैं। वेैसे इस नये जमाने में पिता की भूमिका उस घोसले जैसी रह गई है जिसमें से पाले-पोसे जाने वाले पक्षी शावक दूर दिशाओं में खो गये हैं और घोसला कंटीले बबूल की शाखाओं पर कांटों की नोकों से हवा के झोकों में छिन्न-भिन्न कर हिल रहा है। वैसे बूढ़ापे में पुत्र को पिता, शत्रु की तरह क्यों लगते हैं। इसका जवाब तो पुत्र को अपने बुढ़ापे के बाद ही समझ में आता है।
और अब बस
(1)
उत्तर प्रदेश के विधि आयोग ने सिफारिश की है कि शादी-शुदा बेटी अगर सक्षम हो तो मां-बाप की देखभाल का फर्ज निभाएगी। इसमें उसकी ससुराल वाले चाहकर भी अडंगा नहीं करने वाला बेटा दण्ड संहिता की धारा 125 के तहत सजा का हकदार होगा।
(2)
देश में हाल ही में जनगणना में 1000 लड़कों पर 914 लड़कियों की औसत है। हरियाणा में तो यह संख्या 830 ही है।
Saturday, August 20, 2011
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