मैं बोलता गया हूं वो सुनता रहा खामोश
ऐसे भी मेरी हार हुई है कभी-कभी
छत्तीसगढ़ को ऊंची पर्वतीय चोटियों और इन पर उगे प्राकृतिक खजाने साल, सागौन, बीजा तथा बांस के सदाबहार वन, जंगली औषधियों और इन क्षेत्रों में आश्रय पाने वाले विविध वन्य प्राणियों, रंग-बिरंगी चिडिय़ों के स्वप्निल संसार ने देशी-विदेशी लेखकों, सैलानियों को सदा अपनी ओर आकर्षित किया है। छत्तीसगढ़ के वन्यप्राणियों की विविधता की प्रचूर संया थी पर शानदार प्रजातियां लगातार कम होती जा रही है। पहले वन विभाग के अमले को ग्रामीणों की सहायता मिलती थी और वनों तथा वन्यप्राणियों के
संरक्षण में उनकी महती भूमिका होती थी पर आजकल तो ग्रामीण जन ही वन्यप्राणियों के दुश्मन बन गये हैं और इसका कारण है वन विभाग का असहयोगात्मक रवैया। हाल ही में 3 शेर मारे गये, कुछ हाथियों की भी संदिग्ध मौत हो गई, दरअसल छत्तीसगढ़ जैसे शांत प्रदेश में वन्यप्राणियों और मानव के बीच सीधे संघर्ष की स्थिति निर्मित हो गई है और इसके लिये कुछ कड़े कदम उठाने होंगे।
पंडित मुकुटधर पांडे ने जिस 'कुर्रीÓ की पीड़ा को देखकर छायावाद की धारा का प्रवाह शुरू किया था वह 'कुर्रीÓ अब छत्तीसगढ़ से गायब है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद रायपुर और बस्तर संभाग में वन भैसा को राजकीय पशु घोषित किया है उसकी भी संया घटती जा रही है। इसके लिये अभी से वन भैसा संरक्षण परियोजना प्रारंभ किया जाना जरूरी है। छत्तीसगढ़ में कभी विशाल बारहसिंगा पर्याप्त संया में थे इनके अलावा काला हिरण (ब्लैक बक) भी पाये जाते थे पर आजकल यह समाप्त प्राय है। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय की बात
करें तो दुनिया का सबसे तेज धावक माने जाने वाला चीता भी छत्तीसगढ़ में पाया जाता था पर बैकुंठपुर (कोरिया) में एक रात में ही 3 चीतों को मार डाला गया और देश में दु्रतगामी इस जीव का अंत हो गया। उडऩे वाली गिलहरी भी बस्तर में इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान सहित बादलखोल अयारण्य में गिनी चुनी ही बची है ऐसा कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ में कभी भेडिय़े, सोन कुत्ते, अचानकमार के जंगलों में खरगोश के आकार का माऊस डियर भी अब दिखाई नहीं देता है। साल के वनों में पाई जाने वाली फरदार सुंदर बड़ी गिलहरी की
उछल-कूद भी अब नहीं दिखाई देती है। बस्तर की मैना भी दुर्लभ हो चली है। मधुरस्वर में गाने वाली पक्षियों में काले रंग के भृंगराज तथा अमराइयों में पंचम स्वर में गाने वाली कोयल के स्वर भी मंद होते जा रहे हैं। प्रवासी पक्षियों में फेमिंगो (राजहंस), पेलिकान के अलावा भी कई पक्षी छत्तीसगढ़ में बड़ी संंया में आते थे लेकिन अब यदाकदा ही दिखाई देते हैं।
बसंत के समय टेसू के फूलों पर चहचहाने वाला टिनिफर स्टॉलिंग अब दिखाई नहीं देता है। भारतीय सर्पों के विषय में सर्वमान्य पुस्तक 'स्नेकऑफ इंडियाÓ में डॉ. पी जे देवरस ने लिखा है कि अजगर की सबसे बड़ी प्रजाति 'पाइथन एरिव्कुलसÓ सन 1030 में रतनपुर में अंतिम बार दिखाई दी थी। यह विशाल अजगर 30 फीट लबा होता था लेकिन यह प्रजाति भारत में ही समाप्त हो गई है। जशपुर, फरसाबहार आदि के क्षेत्र को आज भी 'नागलोकÓ कहा जाता है। यहां हर साल सैकड़ों ग्रामीण की सांप काटने से मौत हो जाती है। यहां करैत जैसा
जहरीला सांप भी पाया जाता है। राज्य सरकार ने इस क्षेत्र में 'स्नेक पार्कÓ बनाने का प्रस्ताव केन्द्र को भेजा है पर यह लंबित है। राज्य सरकार को ठोस पहल करना चाहिए ताकि 'स्नेक पार्कÓ बनने से वहां के लोगों की जान तो बचेगी वहीं सांप के जहर से बन रही दवाइयों के लिये भी छत्तीसगढ़ राज्य का योगदान रहेगा।
जांजगीर जिले में 'मगरमच्छ पार्कÓ को पिछली राज्य सरकार ने प्रस्तावित किया था कुछ कार्य भी किया था उसे भी संरक्षण की जरूरत है। पता चला है कि क्रोकोडाइल पार्क के कुछ किलोमीटर के पास ही एक उद्योग स्थापित हो रहा है निश्चित ही इससे इस पार्क तथा मगरमच्छ के संरक्षण पर असर पड़ेगा। कुल मिलाकर राज्य सरकार को कुछ कड़े निर्णय लेने ही होंगे।
आजकल 'अपने छत्तीसगढ़Ó में जिस तरह वनों का विनाश जारी है, शेर और हाथियों को मारने का सिलसिला चल रहा है उससे तो लगता है कि 'वन्यजीवÓ अब दुर्लभ हो जाएंगे। वैसे वन अमला वनों की सुरक्षा और वनप्राणियों की रक्षा को छोड़कर बाकी सभी काम कर रहा है जो उसे करना ही नहीं था।
छत्तीसगढ़ में हाल-फिलहाल ही 3 बाघों की मौत हो चुकी है और वन अमला मामले की लीपापोती में ही लगा है। पहले पंडरिया विकासखंड के अमनिया गांव में एक बाघ की सड़ी-गली लाश मिली थी उसे वन अमला 'लकड़बग्घाÓ मारने की रट लगा रहा था। बाद में कुछ वन्य प्राणी विशेषज्ञों के हस्तक्षेप के बाद उसे बाघ मानने तैयार हुआ। बिलासपुर में भी बाघिन के दांत मिले थे पर पत्रकारों के सामने ही एक वन अधिकारी इसे 'पगोलिनÓ का दांत होना ठहरा रहा था और अपने तर्क भी दे रहा था पर वहां उपस्थित डाक्टर ने उसे बहस से
रोका और बताया कि पैंगोलिन के तो दांत ही नहीं होते हैं।
इधर कवर्धा क्षेत्र में कुछ ग्रामीणों ने एक वनराज को पीट-पीट कर मार डाला। जांच हो रही है और जांच कैसे होती है रिपोर्ट में क्या होता है यह किसी से छिपा नहीं है। हाल ही में भोरमदेव के पास जामनीपाली गांव के निकट भी एक बाघिन का शव मिला है। उसकी मौत मृत गाय की लाश में जहर मिलाने और उसे खाने से हुई है ऐसा वन विभाग के लोगों का कहना है वैसे एक बाघिन अपने दो शावकों के साथ क्षेत्र में धूम रही थी यह खबर वन अधिकारियों के पास पहुंची थी पर वन विभाग को तो कोई मतलब ही नहीं
था। खैर बाद में यह कहा गया कि यह बाघिन वही है और इसके शावक बड़े होने के कारण आसपास के जंगलों में चले गये होंगे। जहां बाघिन की लाश मिली है उसी के 400 मीटर दूर एक गाय की लाश मिली है और उसके शव पर जहर मिलाया गया और उसे खाकर बाघिन की मौत हुई। इधर इसके पहले वन संरक्षक वन्यप्राणी का यह बयान भी आया था कि जहां बाघिन का शव मिला था उसके आसपास दो किलोमीटर का क्षेत्र छान मारा गया है। तब तो गाय का शव क्यों नहीं मिला? खैर बाद में वन तथा पुलिस अमले ने वीरसिंह और उसके
साथियों को पकड़ा, एक रेस्ट हाऊस में अच्छी मारपीट की गई। 19 नग शेर के नाखून भी जब्त किये। अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि शेर के एक पंजे में 4 नाखून होते हैं इस हिसाब से 16 नाखून होने चाहिए फिर 19 नाखून आये कहां से! खैर वीर सिंह और साथियों ने तो शेर को मारना भी स्वीकार कर लिया है चलो बला तो छूटी।
हाथी भी संकट में
आदिवासी अंचल सरगुजा में भी हाथियों के मरने का सिलसिला चल रहा है। करंट से एक हाथी मरा, एक हाथी हाल ही में जहर के सेवन से मरा है यह कहा जा रहा है वहीं हाथी दल से बिछुड़ा एक बच्चा छाल के जंगल से मिलने पर बिलासपुर लाया गया था पर वह भी चल बसा। दरअसल सरगुजा, कोरबा, रायगढ़ आदि क्षेत्र में कई गांव जंगली हाथियों के दल हमले से परेशान है। अभी तक 18 लोगों की मौत हाथियों के हमले से हो चुकी है। कई घर, कई एकड़ खेतों की फसलें बर्बाद हो चुकी है। कुछ गांवों में रतजगा हो रहा है। इसीलिये
अब प्रतिशोध की भावना ग्रामीणों में घर कर रही है। वन अमला अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह बना हुआ है और जंगली जानवरों और ग्रामीण जनता के बीच आना नहीं चाह रहा है।
बिलासपुर गजेटियर की मानें तो भूतपूर्व मातिन और उपरोरा जमींदारी के जंगलों में 1868 में करीब 300 हाथी थे। पर धीरे-धीरे इनकी संया कम होती गई। हाथी दांत की देश विदेशों में बढ़ती मांग भी प्रमुख कारण रहा। वैसे सीमा से लगे पलामू क्षेत्र के हाथी अभी भी सरगुजा, रायगढ़ और कोरबा व प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में झुंड के रूप में आकर कहर बरपा जाते हैं। छत्तीसगढ़ में बिहार से आकर हाथी अपना कहर बरपाते हैं। झारखंड से भी हाथी आते हैं। वन अमला कभी हाथी अयारण्य बनाने की बात करता है तो
कभी ग्रामीणों को मशाल जलाकर, फटाका फोड़कर हाथी के दल से मुकाबला करने की समझाइश देता है। प्रदेश के हाथियों सहित बाहरी प्रदेश के हाथियों के लिये 'एलीफेण्ट प्रोजेक्टÓ की स्थापना की जरूरत है और इस के लिये केन्द्र सरकार पर भी दबाव बनाया जाना चाहिए क्योंकि जनहित पहले जरूरी है।
और अब बस
(1)
प्रेमिका (प्रेमी से) सामने की खिड़की में जो तोता-मैना बैठे हैं, दोनों रोज यहां आते हैं, साथ-साथ बैठते हैं, गुतगू करते हैं और एक हम हैं जो हमेशा लड़ते रहते हैं। प्रेमी-तुमने एक चीज नोट नहीं की है, यहां रोजाना बैठने वाले जोड़ेे में तोता तो वही होता है पर मैना हमेशा एक नहीं होती है।
(2)
राजधानी सहित 13 जिलों में एक भी गधा नहीं है, पशुधन विभाग की रिपोर्ट कहती है। एक टिप्पणी: घोड़ों को नहीं मिलती घास देखो, गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो!
Saturday, December 10, 2011
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