मनुष्य जाति की सभ्यता का जन्म स्थान
शंकर पांडे
हमारे छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने दिल खोलकर सजाया है। खूबसूरत वन, हरे-भरे खेत-खलिहान विस्तृत पर्वत श्रृंखलाएं, जीवंत आदिवासी संस्कृति उन्मुक्त वन्य प्राणी सहित जैव विविधता यहां की अनोखी विशेषता है। ऐतिहासिक धरोहरों के रूप में प्राचीन सभ्यता के उत्कृष्ट पुरातात्विक अवशेष, लोक-जीवन और संस्कृति के अनोखे रंग इस धरती को बाकी भौतिक दुनिया से अलग करते हैं। यहां अबूझमाढ़ की प्राचीन जनजातियां है तो भिलाई और कोरबा की अत्यंत आधुनिक कम्प्यूटर पीढ़ी भी है। विविधता का ऐसा उदाहरण विश्व में शायद ही कहीं दिखाई देता होगा।छत्तीसगढ़ अपनी 10 वीं सालगिरह मना रहा है। इस प्रदेश का इतिहास काफी समृद्ध है। मनुष्य जाति की सभ्यता का यह जन्मस्थान माना जाता है तो लिपी के विकास का भी यहां से सीधा-सीधा संबंध रहा है। आदिमानव, पाषणकाल के औजार तो यहां मिले ही हैं साथ ही साथ सबसे प्राचीनतम नाट्यशाला की भी यहां मौजूदगी पाई गई है। हाल-फिलहाल पचराही में मिले पाषाण भी यहां के समृद्ध इतिहास की तरफ इशारा कर रहे हैं। नया राज्य बना, विकास के कई सोपान तय किये गये, कई सोपान अभी तय भी करने है पर हमें अपने अतीत को भी भावी-पीढ़ी के लिये सहेजने की ईमानदारी से कोशिश करनी चाहिये। प्रख्यात पुरातत्ववेत्त स्व. पं. लोचन प्रसाद पांडे ने संवत 2000 में एक लेख में उल्लेख किया था कि 'यदि कहा जाए कि वर्तमान छत्तीसगढ़ अर्थात् महाकोशल मनुष्य शांति की सभ्यता का जन्मस्थान है तो भले ही आप इसे महत्व न दें किंतु मैंने इस अरण्य तथा पिछड़े प्रांत के वनवासियों के सहवासी उच्च शिक्षा प्राप्त विद्बान को भारत विख्यात इतिहासज्ञों के बीच यह कहते सुना है कि वर्तमान समय में हमारा कोई इतिहास नहीं है पर यह निश्चित है कि मानव जाति की आदि सभ्यता यही पली थी।Ó स्व. लोचन प्रसाद पांडे ने अपने ग्राम बालपुर के निकट रोमन तथा भिन्न-भिन्न मुद्राएं और अन्य वस्तुएं प्राप्त की थी। कवरा पहाड़ी रायगढ़ से लगभग 10 मील दूर आग्नेय कोण में स्थित है। यहां की चित्रकारी गेरूका रंग सी जान पड़ती है। पहाड़ी में 2 गुफाएं भी हैं। तीसरी गुफा में विश्वविख्यात चित्र रचित हैं। एक चित्र में बहुत से पुरुष लाठी लेकर किसी एक बड़े पशु का पीछा करते हुए दौड़े जा रहे हैं। पास ही एक छोटा पशु (भेड़ या बकरा) एक व्यक्ति के सिर पर हमला करता दिखाई दे रहा है। इसके समय विषय में पुरातावेज्ञों में मतभेद है। कोई इन्हें 20 हजार तो कोई 50 हजार साल पुराना बता रहे हैं।महानदी तथा उसकी सहायक शिवनाथ, हसदो और मांद नदियों के अपवाह क्षेत्र में मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल के उपकरण विपुल मात्रा में प्राप्त होते रहे हैं। रायगढ़ के सिघनगढ़, कबरापहाड़, बसनाझर, ओंगना आदि 13 स्थानों में विद्यमान शैलगुहाओं एवं शैलाश्रयों में मध्यपाषाण एवं नवपाषाण सांस्कृतिक काल के आखेटको का निवास था। इन शैलाश्रयों में विद्यमान चित्रों के विषय में तत्कालीन परिवेश के साथ-साथ समकालीन सांस्कृतिक जीवन के वैशिष्टियों को प्रस्तुत करते हैं। रायगढ़ से संलग्न सारंगढ़ की पहाडिय़ों, पश्चिम दिशा की ओर डोंगरगढ़ अंचल के बोरतालाब, साल्देकसा के शैलाश्रयों और बस्तर के शैलाश्रयों के चित्रों से इस संस्कृति की व्यापकता स्थूल रूप से संपूर्ण छत्तीसगढ़ पर्यंत स्वीकार की जा सकती है। बालोद तहसील के अर्जुनी से ताम्र उपकरण मिले है तो बालोद के ही गुरुर के चारों ओर स्थित गांवों में महाश्मीय संस्कृति (मेगालिथिक कल्चर) से संबंधित स्मारक बड़ी संख्या में विद्यमान है। मुसगहन, घनोरा, कर्काभाट, करहीमदर, सोसर और कुलियों में 1500 से अधिक महाश्मीय स्मारक थे। कर्काभाट तथा आसपास किये गये उत्खनन से मिली सामग्रियों के आधार पर महाश्मीय संस्कृति का काल 2500 ईपू से 1500 ईपू माना गया है। यह सांस्कृतिक काल लौह युगीन था।ताजमहल से भी प्राचीन इंटो का सिरपुर स्थित लक्ष्मण मंदिर अपनी प्राचीनता की कहानी कह रहा है तो रायगढ़ जिले के सिंघनपुर, विक्रमखोल तथा करमागढ़ की पर्वत श्रेणियों में आदि मानव के औजार और शैलचित्र मिले हैं। सिंघनपुर की पहाडिय़ों की सतह पर जो रेखाएं और रेखाकृतियां अंकित है उन्हें प्राचीनकाल की लिपि की जननी माना गया है। इन रेखाकृतियों में ऐसा चिंह मिला है जिनका संबंध जोदड़ों में प्राप्त लिपियों से हो सकता है। हिंदु विश्वविद्यालय वाराणसी डॉ. प्राणनाथ इस लिपि को 1500-2000 ई.पू माना है। यहां मिले चित्र और औजार पूर्वकाल की धरोहर है। सिंघनपुर के कुछ अक्षर जैसे 'क ख घ च छ त न प मÓ अपने प्रारंभिक स्वरूप में पाये गये हैं। संभवत: लिपि का विकास इन्हीं चित्रों से हुआ है। अत: रायगढ़ के पर्वतों से प्राप्त पाषाणकालीन चित्रों को हम मनुष्य की सभ्यता के विकास का प्रथम चरण कह सकते हैं। सरगुजा रामगढ़ में ईसा से 300 वर्ष पूर्व की नाट्यशाला प्राचीनतम मानी जाती है। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ का अतीत काफी समृद्ध था और इसे संजीव रखने की जरूरत है।
राज्योत्सव 10 पर विशेष
शिवाजी महाराज भी आ चुके हैं छत्तीसगढ़
शंकर पांडे
मुगल बादशाह औरंगजेब की कैद से निकलकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने सरगुजा के जंगलों सहित रतनपुर के नवांचलों में गुजारने के पश्चात रायपुर होकर चंद्रपुर (विदर्भ) होकर अपने रायगढ़ (महाराष्ट्र) के किले में पहुंचे थे। 14 अगस्त 1662 से 22 सितंबर 66 तक उन्होंने कुछ समय छत्तीसगढ़ मे भी गुजारा था। राज्योत्सव की दसवीं सालगिरह पर एक सनसनीखेज तथ्य।मुगल बादशाह औरंगजेब ने छलपूर्वक शिवाजी महाराज को सन् 1966 में आगरा के किले में कैद कर लिया था। 1662 में औरंगजेब को शिवाजी, संभाजी बेटे के साथ साथ अपने नौ वर्षीय के साथ अपना 50 वां जन्मदिन के अवसर पर एक योजना के तहत औरंगजेब ने आमंत्रित किया था। शिवाजी को कंधार, अफगानिस्तान भेजने की योजना थी इसके लिए मजबूत मुगल साम्राज्य सीमा के उत्तर पश्चिमी, अदालत ने हालांकि 1662 मई 12, औरंगजेब के बारे में उनकी अदालत के पीछे सैन्य कमांडरों खड़ा कर दिया। शिवाजी को अपमान प्रतीयमान इस अपराध में ले लिया और अदालत के बाहर हमला कर दिया और तुरंत गिरफ्तार कर लिया। बाद में आगरा कोतवाल को अपने जासूसों से पता चला है कि औरंगजेब, शिवाजी को राजा हवेली को अपने निवास ले जाने के लिए और फिर संभवत: उसे मारने के लिए या उसे अफगान सीमा में लडऩे के लिए भेजने की योजना बनाई , एक परिणाम के रूप शिवाजी ने भागने की योजना बनाई। इसके बाद उसके अनुरोध पर मंदिरों में आगरा और दैनिक लदान के मिठाई के लिए संतों उपहार और प्रसाद के रूप में भेजने के लिए अनुमति दी और कई दिनों के बाद शिवाजी, मिठाई और अन्य सामग्री बाहर भेजने बक्से में अपने नौ साल के बेटे संभाजी, खुद को बक्से में छिपा दिया और भागने में कामयाब रहे। इस तरह 14 अगस्त 1666 को ही बड़ी चतुराई से शिवाजी महाराज कैद से भागने में सफल हो गये थे। प्रमाणिक जानकारी के अनुसार जब मूगलों को शिवाजी महाराज के कैद से भागने की खबर मिली तो मुगलों ने रायगढ़ (महाराष्ट्र) किले की ओर जाने वाले सभी मार्गों पर मोर्चाबंदी की थीं पर शिवाजी महाराज दक्षिण की ओर न जाकर उत्तर-पूर्व की ओर जाना ही उचित समझा। वे उस समय इटावा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी होकर मिर्जापुर पहुंचे। वहां से सरगुजा-रतनपुर-रायपुर-चंद्रपुर होकर चिन्नूर, करीमगंज, मुलबर्ग, मंगलबेड़ा होकर वापस अपने रायगढ़ (तब विदर्भ) के किले में पहुंचने में सफल हो गये थे।शिवाजी महाराज ने छत्तीसगढ़ के सरगुजा और रतनपुर के वन्य अंचलों में कितने दिन गुजारे और रायपुर होकर चंद्रपुर (महाराष्ट्र) कब गये यह तिथि तो ज्ञात नहीं हो सकी है परंतु आगरा में औरंगजेब की कैद से वे 14 अगस्त 1966 के दिन भाग निकले थे और 22 सितंबर 1662 को वापस अपने रायगढ़ किले में पहुंचे थे। इसका मतलब यही है कि एक महीने 8 दिन कुछ दिन जरूर छत्तीसगढ़ प्रवास पर रहे थे।जयराम पिण्डे (1673) तथा भीमसेन सक्सेना (1966) ने अपने लेख में खुलासा किया था, वहीं शिवाजी महाराज के भागने के मार्गों का भी जिक्र किया था। मुगल बादशाह औरंगजेब का इतिहास लिखने वाले खाफी खां ने भी इसका उल्लेख किया है। मुगलकालीन इतिहास के लिये खाफी खां को मुगलों के इतिहास के लिये प्रमाणिक माना जाता है। उन्होंने भी शिवाजी महाराज के औरंगजेब की कैद से भागने के मार्ग और क्रियाकलापों का उल्लेख किया है। पुस्ट जानकारी के अनुसार शिवाजी महाराज ने मुगलों की कैद से भागकर आगरा से अपने पुत्र संभाजी को दासोजी पंत के पास छोड़ दिया। उसके बाद वे कृष्णपंत के साथ फतेहपुर के पास यमुना पार किया, चूंकि दक्षिण जाने के मार्ग पर मुगलसेना शिवाजी को तलाश रही थी इसलिये वे इटावा, कानपुर, इलाहाबाद होते हुए वाराणसी पहुंचे थे। वाराणसी से मिजापुर होकर सरगुजा (छत्तीसगढ़) पहुंचे। यहां के जंगलों से होकर वे रतनपुर पहुंचे। सुदूर और वनांचल क्षेत्र होने के साथ ही उस समय सरगुजा-रतनपुर के जंगल काफी दुर्गम होने के कारण सुरक्षित थे। रतनपुर से रायपुर होकर शिवाजी महाराज चंद्रपुर (विदर्भ) पहुचे और वहां से चिन्नूर, करीमगंज, गुलबर्ग, मंगलबेड़ा होकर 22 सितंबर 1662 को रायगढ़ जिले वापस पहुंच गये थे।
बिलासपुर जेल में लिखी गई थी कविताएं: शहर का भी उल्लेख
शंकर पांडे
महान साहित्यकार पं. माखनलाल चतुर्वेदी 'दादाÓ की जन्म स्थली बाबई (होशंगाबाद) मध्यप्रदेश है। वे अपने साहित्य के नाम पर अमर हो गये है। चतुर्वेदी लाल दादा माखन जन्म 4 अप्रैल 1889 को होशंगाबाद जिले के एक गांव में हुआ था। एक प्रख्यात लेखक, निबंधकार, कवि, पत्रकार और नाटककार के रूप में उन्होंने देश को बहुत कुछ दिया। यही नहीं उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इसके लिये उन्होंने 1912 में शिक्षक के पद से इस्तीफा दे दिया है और पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया पत्रिकाओं कर्मवीर प्रभा आदि में संपादन किया और 1959 में सागर विश्वविद्यालय भारत की ओर से है डीलिट की उपाधि दी गई, वहीं उन्हें पदमविभूषण से सम्मानित किया गया। 78 वर्ष की आयु में 1968 वर्ष में उनका निधन हो गया। बतौर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उन्हें अंग्रेजों ने बिलासपुर जेल में नजरबंद कर दिया था। इस जेल में पंडित जी ने 13 कविताओं की रचना की जिसमें पुष्प की अभिलाषा, कैदी और कोकिला तथा मेरा व्रत पूजन काफी प्रसिद्ध रही। छत्तीसगढ़ को महान साहित्यकार पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अमर कर दिया है। होशंगाबाद (म.प्र.) के बाबई नामक एक गांव के मूल निवासी पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने साहित्य साधना के साथ भारत की आजादी के आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्हें अंग्रेज शासकों ने किसी मामले में गिरफ्तार कर 5 जुलाई सन् 1921 को बिलासपुर (छत्तीसगढ़) जेल में स्थानांतरित कर दिया था। वे 5 जुलाई 1921 से एक मार्च 1922 तक वे बिलासपुर जेल में बंद रहे। इस दौरान जेल के भीतर उनसे रस्सी आदि बनवाने का काम भी लिया जाता था जिसका उन्होंने उल्लेख भी किया है। बहरहाल जेल के भीतर बंद होकर भी उनका कवि हृदय नई कविताओं का सृजन करता रहा।बिलासपुर जेल के भीतर ही 18 फरवरी 1922 को उन्होंने पुष्प की अभिलाषा शीर्षक की एक कविता लिखी थी जो काफी चर्चित भी रही।चाह नहीं मैं सुरबाला केगहनों में गूंथा जाऊंचाह नहीं, प्रेमी-माला मेंविंध प्यारी को ललचाऊंचाह नहीं, सम्राटों के शवपर हे हरि डाला जाऊंचाह नहीं, देवों के सिर परचढूं भाग्य पर इठलाऊंमुझे तोड़ लेना वनमालीउस पथ पर देना तुम फेंकमातृभूमि पर शीश चढ़ानेजिस पथ जाएं वीर अनेक(बिलासपुर जेल 18 फरवरी 1922) वैसे जेल के भीतर नजरबंद पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने 'कैदी और कोकिलाÓ नामक कविता सहित कुल 13 कविताएं लिखी थीं। उन्होंने उल्लेख किया है कि 7 नवंबर 1921 को मैं एक दिन बिलासपुर जेल के भीतर रस्सी बना रहा था। मेरे पास रस्सी का ढेर था। तब जेल के एक उच्च कर्मचारी ने आकर कहा- क्या यह आपका धंधा है, आखिर आपने यह ढेरा क्यों लिया है। उसकी इच्छा थी कि मैं जेल के भीतर दुख की जिंदगी से किसी तरह छुट्टी पा लूं। उसका संकेत था कि क्षमा प्रार्थना कर जेल से छुट्टी पा लूं। पर उस दिन मेरा 'मौनÓ था। मुस्कुराने के सिवा मेरे पास कोई इलाज नहीं था। दूसरे दिन उसी कर्मचारी ने आकर मेरी डायरी पढ़ा और उसके पश्चात वह सदैव यत्नशील रहा कि कभी मेरा जी न दुखाया जाए। इसी संदर्भ में पंडितजी ने 'मेरा व्रत पूजनÓ में एक कविता लिखी जिसमें बिलासपुर (छत्तीसगढ़) का भी उल्लेख किया था।सन् नहीं तन भारतीयों से मिलाता हूंचक्कर लगाते हुए अलख जगाता हूंयो विश्व बांधने को प्रेम बंधन बनाता हूंनाम ही तो पाता हूं बिलासपुरवासियों सेमैं तो तीर्थराज इन सीखचों में पाता हूंस्वर की कलिन्दजा में मस्ती की सरस्वती लेनयनों की गंगा बना, त्रिवेणी नहाता हूं (बिलासपुर जेल 1921)
राज्योत्सव 2010 पर विशेष
बस्तर बाल-बाल बचा उड़ीसा में शामिल होने से
शंकर पांडे
आदिवासी अंचल बस्तर को तत्कालीन म.प्र., आंध्रप्रदेश तथा उड़ीसा अपने राज्य में शामिल करना चाहते थे। हैदराबाद के निजाम ने तो बैलाडिला को लीज में लेने का प्रस्ताव भी बस्तर रियासत के समक्ष रखकर 1922 में सर्वे भी करा लिया था। खैर बस्तर को उड़ीसा में मिलाने एक आंदोलन भी चलाया गया था। बस्तर उड़ीसा राज्य में शामिल तो नहीं हो सका पर पुरस्कार स्वरूप आंदोलन की अगुवाई करने वाले अभिमन्यु रथ को बाद में उड़ीसा कोटे से राज्यसभा सदस्य बनाया गया।बस्तर की रत्नगर्भा धरती और अकूत वन संपदा को लेकर कुछ प्रदेश इसे अपने राज्य में शामिल करने प्रयासरत रहे। जमशेद भाई दादा ने तो यहां काफी पहले कारखाना स्थापित करने सर्वे कराया तथा वे स्वयं बस्तर प्रवास पर भी आ चुके थे पर यातायात संसाधन नहीं होने के कारण बात आगे नहीं बढ़ी थी। हैदराबाद के निजाम ने बैलाडिला को लीज पर लेने का प्रस्ताव तत्कालीन बस्तर रियासत के सामने रखा था। सर्वे में उनके वैज्ञानिकों ने हजारों टन लौह अयस्क होने की पुष्टि कर दी थी। बहरहाल 1947 तक यह मामला कई कारणों से अटकता ही रहा। इसके बाद आंध्रप्रदेश ने तेलगू भाषी क्षेत्रों को अपने प्रदेश में मिलाने की रूचि दिखाई थी। पर 1952-56 में उड़ीसा राज्य में बस्तर को मिलाने बकायदा एक आंदोलन उड़ीसा की तत्कालीन सरकार के सहयोग से अंचल के लेखक, वक्ता, राजनीतिज्ञ अभिमन्यु रथ के नेतृत्व में शुरू किया गया। 1952 के आम चुनावों में उड़ीसा ही एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और उसे गणतंत्र परिषद (राजाओं, जमींदारों की पार्टी) के साथ मिलकर सरकार बनाना पड़ा। इस सरकार के मुख्यमंत्री बने डा. हरेकृष्ण मेहताब। वे उत्कल-संस्कृति से प्रभावित आंध्रा का भाग भी उड़ीसा में मिलाकर उड़ीसा का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। वे मानते थे इसके लिये बस्तर के भीतर से उड़ीसा राज्य में शामिल होने की आवाज उठे और वहां के लोग राज्य पुनर्गठन आयोग को इसकी सिफारिश करें फिर उड़ीसा राज्य भी अपना दावा ठोकेगा। इसके लिये उन्होंने जगदलपुर के स्थायी निवासी अभिमन्यु रथ को इसके लिये कमान सौंपी। इसके लिये रथ ने बस्तर के पूर्वी अंचल के भतरा आदिवासियों को पकड़ा, उनकी भाषा-संस्कृति भी उड़ीसा से मेल खाती थी। करीब एक लाख हस्ताक्षर राज्य पुनगर्ठन आयोग के अध्यक्ष सैय्यद फजल अली से मुलाकात की और पक्ष भी रखा। जब यह खबर सीपी एंड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल और तत्कालीन गृहमंत्री को मिली तो पं. शुक्ल ने अपने मित्र सुंदरलाल त्रिपाठी को इसके विरोध में खड़ा किया। उनके समझाने पर भी जब अभिमन्यु रथ नहीं माने तो त्रिपाठी जी ने जवाबी आंदोलन की शुरूवात कर दी। अभिमन्यु रथ ने बस्तर को उड़ीसा में मिलाने के समर्थन में जगदलपुर में एक रैली निकाली जिसमें हजारों आदिवासी शामिल थे। पं. सुंदरलाल त्रिपाठी ने भाषायी कूटनीति का अस्त्र भी चलाया। एक पर्चा छपवाया कि यदि बस्तर को उड़ीसा में शामिल किया गया तो बच्चों को अतिरिक्त भाषा 'उडिय़ाÓ भी पढऩी पढ़ेगी, जिन सरकारी कर्मचारियों को उडिय़ा नहीं आती है उन्हें उड़ीसा सरकार नहीं लेगी तथा वर्तमान सरकार भी कहीं दूरदराज तबादला कर देगी। इधर उस समय के बस्तर के हालात पर प्रसिद्ध उपन्यासकार शानी ने 'कस्तुरीÓ में लिखा था कि 'हम बस्तर में है तो सरकार हमें कौन से लड्डू खिला रही है और उड़ीसा में रहेंगे तो कौन कड़ाही में तले जाएंगे।Ó तब कांग्रेसी ऐसे प्रश्नों के सामने निरूत्तर हो जाया करते थे। बाद में जनमानस बदला, अभिमन्यु रथ की गिरफ्तारी हुई, बात प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची और बस्तर-बड़ीसा में जाते-जाते रह गया। हां उड़ीसा में बस्तर को शामिल करने के लिये प्रयास करने के नाम पर अभिमन्यु रथ को तत्कालीन उड़ीसा सरकार ने राज्यसभा सदस्य बनवा दिया था। वे जगदलपुर में ही रहकर 6 सालों तक राज्यसभा का प्रतिनिधित्व किया, संभवत: वे बस्तर अंचल से पहले और अभी तक आखरी राज्यसभा सदस्य रहे। बाद में वे नगरपालिका जगदलपुर में पार्षद भी बने। कुछ वर्षों पूर्व रायपुर रेलवे स्टेशन में हृदयाघात से उनका निधन हो गया और जगदलपुर में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनके परिवारजन अभी भी जगदलपुर में रहते हैं।
'धान के कटोरेÓ में 'सोने के सिक्कोंÓ का कभी चलन था
शंकर पांडे
'धान के कटोरेÓ के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ में विश्व की 12 हजार 500 धान की प्रजातियों में करीब 10 हजार प्रजाति केवल छत्तीसगढ़ में ही पाई जाती है। धान के इस कटोरे का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। कभी यहां सोने-चांदी के सिक्कों का चलन था। व्यापारिक क्षेत्र में भी छत्तीसगढ़ काफी समृद्ध था। गरियाबंद के पास ग्राम सिरकट्टी में पैरी नदी के तट पर नदी बंदरगाह (डॉकयार्ड) के अवशेष मिले है। छत्तीसगढ़ से 'रोमÓ का व्यापार प्राचीनकाल में नदी मार्ग से होता था इसकी पुष्टि भी नये बंदरगाह के अवशेष मिलने से होती है।'धान के कटोरेÓ के नाम से चर्चित छत्तीसगढ़ का इतिहास काफी गौरवशाली है। यहां कभी सोने के सिक्के भी चलते थे। कुछ पुरातात्विक स्थलों की खुदाई में 'रोम के सोने के सिक्केÓ भी मिले है। ये छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति, परंपरा और व्यापारिक संबंध विदेशों से होने की भी वकालत करते हैं।छत्तीसगढ़ में कभी स्वर्ण मुद्राएं प्रचलित थी। भारत का पश्चिम देशों से व्यापारिक संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। इसका प्रभाव तब छत्तीसगढ़ में भी पड़ा था। छत्तीसगढ़ में भारतीय ही नहीं बल्कि विदेशों के सोने के सिक्के भी मिले है। बिलासपुर तथा चकरबेढ़ा नामक गांव में 'रोमÓ के 2 सोने के सिक्के प्राप्त हुए है जो आज भी महंत घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित हैं। छत्तीसगढ़ में चौथी शताब्दी में गुप्त वंश का प्रभाव पड़ा था। समुद्रगुप्त के काल के 20 सोने के सिक्के बनबरद गांव में ही मिले हैं। इनमें से एक सिक्का काच, एक समुद्रगुप्त और 7 चंद्रगुप्त के समय का है। 'काचÓ समुद्रगुप्त के सुपुत्र थे जिसे रामगुप्त के नाम से भी जाना जाता है। इन सिक्कों में शौर्य, रणक्षेत्र के प्रतीक अजेय राजाओं के सुसज्जित चित्र और वीणा वजाते राजा का चित्र अंकित है। कुछ सिक्कों में अश्वमेघ यज्ञ और माता-पिता के प्रति श्रद्धा के दृश्य अंकित हैं। भरमपुर वंशों के कार्यकाल में भी स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन था। छत्तीसगढ़ की राजधानी शरभवंश के काल में सिरपुर थी। वहां खुदाई से सोने के सिक्के मिले हैं। स्वर्ण मुद्रा अमरार्यकुल के राजा प्रसन्न मात्र की मुद्रा थी। सिक्कों का चलन तब कटक से लेकर चांदा तक प्रचलित था। कल्चुरी नरेश प्रथम जाजल्लदेव ने भी सोने के सिक्के जारी किये थे। इन सोने के सिक्कों के अग्रभाग में श्री जाजल्लदेव और पृष्ठ भाग में कलिंग देश के नृपतिगंग पर मिली विजय का प्रतीक राजशार्टूल चिंह अंकित है। रतनपुर के अनेक कलचुरि नरेशों ने स्वर्ण सिक्के जारी किये थे। दिसंबर 1972 के प्रथम सप्ताह दुर्ग जिले के वानवरद गांव में गुप्तकालीन 9 स्वर्ण सिक्के मिले हैं। इसके पूर्व बिलासपुर में एक गुप्त स्वर्ण सिक्का मिला था। नरेश प्रसन्नमात्र के समय के पांचवीं-छठवीं शताब्दी के कार्यकाल के स्वर्ण सिक्के दक्षिण कोसल के अनेक स्थानों पर मिल चुके हैं। इन सिक्के पर आवक्ष लक्ष्मी और गरूड़ के साथ ही शंख चक्र भी विद्यमान है। वैसे यह सिक्का भग्नावस्था में मिला है। पं. लोचन प्रसाद पांडे ने शोधपत्र के अनुसार बालपुर और महानदी के आसपास अनेक सोने के सिक्के मिले है। हैहृयवंशियों के सोने और चांदी के सिक्कों पर पं. लोचनप्रसाद पांडे ने शोधपत्र भी तैयार किये थे जिनका प्रकाशन आंध्रा हिस्टारिकल रिसर्च सोसायटी में हुआ था। इंडियन म्यूजियम कलकत्ता के पुरातात्विक विभाग के तत्कालीन अधीक्षक वीआर चंद्रा ने तब स्वीकार किया था कि हैहृयवंशी पृथ्वीदेव, जाजल्लदेव और रत्नदेव के समय सोने के सिक्के चलते थे। अभी भी सेंट्रल म्यूजियम नागपुर में कुछ सोने के सिक्के रखे हुए हैं। छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक सोने के सिक्कों के एक साथ मिलने का रिकार्ड बिलासपुर जिले का है। इस जिले के सोनसरी गांव में जमीन के भीतर तांबे के बर्तन में एक साथ 600 सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इसमें 459 सिक्के राजा पृथ्वीदेव (1140-1160 ए.डी.) 36 सिक्के राजा जाजलनदेव (1160-1175 ए.डी.) और 96 सिक्के राजा रत्नदेव (1175-1190 ए.डी.) के शासनकाल के है तो 9 सिक्के दूसरों के शासनकाल के थे। मल्हार के गांवों में खुदाई के समय भी सोने के सिक्के मिले थे। सोने के अलावा चांदी के सिक्के भी छत्तीसगढ़ में प्रचलित थे। नंद-मौर्यकाल में चांदी के सिक्कों का प्रचलन था। रायपुर जिले के तारापुर, रायगढ़ जिले के सारंगढ़ साल्हेपाली बिलासपुर जिले के अकलतरा के पास चांदी के सिक्के भी खुदाई के दौरान मिल चुके हैं।
Sunday, November 28, 2010
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