Sunday, December 26, 2010


अपना चेहरा न बदला गया,
आइने से खफा हो गये,
बेवफा तो न वो थे न हम
यूं हुआ बस जुदा हो गये

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह निश्चित ही भाग्य के धनी है तभी तो नगरपालिका में एक पार्षद से सार्वजनिक जीवन की राजनीति शुरू करने के बाद विधायक, सांसद होकर केन्द्र में मंत्री बन गये थे और छत्तीसगढ़ राज्य में एक पूरा कार्यकाल समाप्त कर दूसरी बार मुख्यमंत्री बनकर एक रिकार्ड बनाने अग्रसर हैं। उनके साथ सबसे अच्छी बात तो यह है कि उनकी छवि अच्छे राजनेता की है। वहीं विवादों से दूर रहने के अलावा उनमें एक अच्छा गुण यह है कि वे कम से कम बात करते हैं। वहीं राजनीति में 'बदले की भावनाÓ से कार्य करना उनकी आदत नहीं है जैसा अक्सर राजनेताओं में देखा जाता है। बहरहाल राजनीतिक पार्टी में अदने से कार्यकर्ता के रूप में शामिल होकर उन्होंने मुख्यमंत्री तक का सफर पूरा किया है। यह एक उदाहरण दें सकता है। वैसे उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा को राजनांदगांव लोकसभा में पराजित किया था और उसी के फलस्वरूप उन्हें केन्द्र में मंत्री बनाया गया था। 2003 में छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पहले विधानसभा चुनाव में उन्हें मंत्री पद छोड़कर छत्तीसगढ़ जैसे तत्कालीन कांगे्रस के गढ़ में सरकार बनाने की बात सपना देखने जैसी थी पर यह चुनौती उन्होंने स्वीकार की और उसी चुनौती में सफल होने के कारण वे लगातार दूसरी बार भी मुख्यमंत्री बने हैं। वैसे डॉ. रमन सिंह के साथ एक बात अच्छी है कि उन्हें उनकी ही पार्टी से चुनौती खुलकर नहीं मिल रही है। छत्तीसगढ़ के पितृ पुरुष लखीराम अग्रवाल के पुत्र अमर अग्रवाल को मंत्रिमंडल से बाहर कर फिर वापसी से उन्होंने अपने पार्टी विरोधियों को यह तो समझाने में सफल रहे कि वे कड़े निर्णय लेने में भी पीछे नहीं हैं। उनके पहले कार्यकाल में उनके विरोध में आदिवासी एक्सप्रेस चली थी पर उसमें शामिल बड़े नेता आजकल प्रदेश की राजनीति से ही बाहर है। उस समय तो यह कहा जाता था कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने प्रदेश के 'सिंहÓ को बचा लिया पर उनके हटते ही नीतिन गडकरी भाजपा अध्यक्ष बने और सुषमा स्वराज लोस में नेता प्रतिपक्ष बनी तब प्रदेश में बड़े फेरबदल की उम्मीद असंतुष्टï नेता कर रहे थे पर जिस तरह सार्वजनिक मंचों सहित पार्टी फोरम में भाजपा के बड़े नेताओं ने डॉ. रमन सिंह की पीठ थपथपाई उससे कइयों के मंसूबों में पानी फेर दिया है।
क्यों जुदा हो गये?
बहरहाल प्रदेश के कद्दावर भाजपा नेता रमेश बैस और डॉ. रमन सिंह के बीच संबंध अच्छे नहीं हैं यह जगजाहिर है। एक भाजपा के नेता का कहना है कि दोनों में कई समानताएं हैं फिर भी दोनों की विचारधारा क्यों नहीं मिलती है यह समझ से परे हैं। दोनों का नाम 'रÓ से रमेश बैस, रमन सिंह हैं दोनों ने पार्षद का चुनाव जीतकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया है, दोनों पहले विधायक बने, बैस पहले विधायक मंदिर हसौद से बने थे तो डॉ. रमन सिंह कवर्धा से चुने गये थे। दोनों सांसद रह चुके हैं, दोनों केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो चुके हैं। दोनों ने पूर्व मुख्यमंत्री को हटाया है। डॉ. रमन सिंह ने पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा को पराजित किया था तो रमेश बैस ने पं. श्यामाचरण शुक्ल को पराजित किया था। एक बात दोनों में और भी कामन है दोनों 'डेरी हत्थाÓ है यानी बांये हाथ से लिखते हैं। वैसे दोनों में एक असमानता यह है कि रमेश बैस का पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी से याराना है तो डॉ. रमन सिं का 36का आंकड़ा है। डॉ. रमन सिंह के पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल से काफी अच्छे संबंध है तो रमेश बैस से उनका 36 का आंकड़ा है।
कांगे्रस की अपनी लड़ाई!
छत्तीसगढ़ में भाजपा के फलने-फूलने का बहुत बड़ा कारण 'कांगे्रसÓ ही है। देश की सबसे 125 साल पुरानी राजनीतिक पार्टी कांगे्रस की हालत छत्तीसगढ़ में किसी से छिपी नहीं है। यहां के बड़े कांगे्रसी नेताओं की उच्च महत्वाकांक्षा तथा अहं की लड़ाई के कारण कांगे्रस दिनों दिन रसातल में मिलती जा रही है। कभी छत्तीसगढ़ से विजयी कांगे्रस के विधायकों की संख्या के आधार पर अविभाजित मध्यप्रदेश में कांगे्रस की सरकार बनती थी पर अब इसी छत्तीसगढ़ में कांगे्रस की हालत पर तरस ही आ रहा है। वैसे छत्तीसगढ़ में कांगे्रस के कुछ नेता देश में जाने-पहचाने जाते हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, अजीत जोगी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे तथा वर्तमान में कांगे्रस के राष्टï्रीय सचिव मोतीलाल वोरा भी एक बड़ा नाम है। आदिवासी नेता तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविंद नेताम, अविभाजित मध्यप्रदेश के पूर्व गृहमंत्री, सांसद डॉ. चरण दास महंत, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में लम्बे समय तक गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल, नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू सभी बड़े नाम है। कांगे्रस के संगठन तथा सत्ता में कभी बड़ा दखल रखने वाले स्वरूपचंद जैने भी जाना पहचाना नाम है। कांगे्रस में कुछ और बड़े और जाने पहचाने नाम है पर उन्हें वह तवज्जो नहीं दी जा रही है। वहीं हाल-फिलहाल किसी नेता का पिछलग्गू बनकर संगठन में पद हासिल करने वालों की तूती बोल रही है और यही लोग टिकट वितरण करते हैं और चुनाव परिणाम साबित भी करता है कि टिकट वितरण में भेदभाव हुआ था। बहरहाल देश की सबसे पुरानी कांगे्रस पार्टी में बड़े नेताओं में एका नहीं है।धनेंद्र साहू जैसे अध्यक्ष से किसी बड़े नेता के खिलाफ कार्यवाही की उम्मीद करना बेकार है। अनुशासनहीनता और भीतरघात आम बात है। कभी नारायण सामी जैसे केन्द्रीय मंत्री पर कांगे्रस भवन में कालिख पोती जाती है तो कभी तिरंगा केक काटकर जगहंसाई का पात्र बनने में कोई कोताही नहीं बरती जाती है। भिलाई नगर निगम तथा बीरगांव नगर पालिका के चुनाव में टिकट वितरण को लेकर जिस तरह बड़े नेताओं के मतभेद सामने आये वह किसी से छिपा नहीं है। ऐन भिलाई नगर निगम के चुनाव के समय नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे पर जिस तरह पार्टी के विधायक बदरुद्दीन कुरैशी ने गंभीर आरोप लगाये, शपथ पत्र दिया वह मामला कांगे्रस हाईकमान को प्रेषित हो चुका है। बस्तर जहां कभी कांगे्रस का गढ़ था वहां 'सलवा जुडूमÓ अभियान को लेकर आज भी कांग्रेस की एक राय नहीं बन सकी है जबकि अब तो 'सलवाजुडूमÓ की मौत होने को है। कांग्रेस प्रदेश के विपक्ष की भूमिका कैसे निभा रही है यह भी सर्वविदित है। भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लग रहा है पर विपक्ष चुप है। वरिष्ठï आईएएस अफसर बीएल अग्रवाल के ठिकानों पर छापे के बाद उनका निलंबन बहाली और हाल ही में राजस्व मंडल का अध्यक्ष बनाने पर विपक्ष चुप है। पाठ्यपुस्तक निगम की पाठ्य पुस्तकें कबाड़ी के गोदाम से जप्त की जाती है, पापुनि के महाप्रबंधक निर्धारित अवधि (3 साल) पूरा का भी प्रतिनियुक्ति पर है, लाखों रुपये मासिक पर किराये में भवन लिया गया है, महापुरुषों की वितरित होने वाली पोटो में सरदार वल्लभभाई पटेल शामिल नहीं है, इंदिरा, राजीव शामिल नहीं है पर विपक्ष चुप है। प्रदेश के गृहमंत्री और डीजीपी के बीच 36 का आंकड़ा है , नक्सली अपहरण करते हैं और परिजन हैदराबाद जाकर छोडऩे की अपील करते है पर विपक्ष चुप है। नई राजधानी रायपुर में निर्माण कार्यो पर भ्रष्टï्राचार का बोलबाला है, धान खरीदी हो या सालबीज खरीदी का मामला हो विपक्ष चुप है क्यों?
डीएम की वापसी !
छत्तीसगढ़ पुलिस मुख्यालय में एक अफसर थे दुर्गेश माधव अवस्थी। रायपुर जिले के आईजी सहित आईजी गुप्त वार्ता के पद पर भी कार्यरत थे। प्रदेश के कुछ मंत्रियों सहित विपक्ष के कुछ नेताओं ने उनकी लगातार शिकायत की। इसी बीच 75 सीआरपीएफ के जवानों की नक्सलियों द्वारा सामूहिक हत्या के मामले में उन्होंने अपने एक कनिष्ठï अधिकारी को बली का बकरा बनाने का प्रयास किया, सरकार ने भी ऐसा ही पक्ष रखा पर बस्तर प्रवास पर गये गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। चिदंबरम की नाराजगी के चलते ही डा. रमन सिंह को कड़ा निर्णय लेकर डीएम अवस्थी को पुलिस मुख्यालय से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा वहीं आईजी (गुप्तवार्ता) पर मुकेश गुप्ता को तैनात करना पड़ा । इधर हाल ही में डीेम अवस्थी को अब आईजी से एडीशनल डीजी पदोन्नत करने की चर्चा है। सूत्रों का कहना है कि 'सरकारÓ के निर्देश पर ही डीपीसी आयोजित की गई थी। बहरहाल डीएम अवस्थी को पुन: पुलिस मुख्यालय लाने की चर्चा है वैसे चर्चा यह भी है कि उन्हें वर्तमान पद को पदोन्नत कर पुलिस मुख्यालय से बाहर ही रखने के लिए भी कुछ मंत्री और वरिष्ठï अफसर सरकार पर दबाव बनाये हुए हैं।वैसे लोग कहते है कि अब आरोप लगाने के बाद आईएएस बाबू लाल अग्रवाल पदोन्नत हो सकते है तो कई तरह के विवादों से चर्चित डीएम अवस्थी वापस मुख्यालय क्यों नहीं आ सकते।
और अब बस
(1)
बिहार के एक नेता के 'प्रसादÓ के नाम पर पुलिस के एक आला अफसर को हटाने में सरकार असमंजस में है वैसे तो मंत्रालय स्तर पर उन्हें हटाने नोटशीट भी चल चुकी है।
(2)
उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता का सरकार पर फिर दबाव है कि उनके समर्थक अफसर को फिर अच्छा पद दिया जाए पर सरकार के कुछ मंत्रियों का इससे नाराज होने का खतरा बढ़ गया है।
(3)
जाय उम्मेन के बाद या नारायण सिंह या सुनील कुमार...यह चर्चा मंत्रालय में जमकर है कुछ तो दुखी है पर बहुत से अफसर परिवर्तन की वकालत भी कर रहे हैं।
(4)
छ.ग. टेनिस एसोसिएशन को स्थायी सदस्य की मान्यता दिलाने में विक्रम सिंह सिसोदिया की अहम भूमिका रही। एक टिप्पणी..सरकार को कई क्षेत्रों में मान्यता दिलाने का जिम्मा अब अमनसिंह के पास है इसलिए विक्रम सिंह अब खेलकूद में व्यस्त हैं?

Monday, December 13, 2010

आइना ए छत्तीसगढ़

दामन है तार-तार मुझे कुछ पता नहीं

कब आ गई बहार मुझे कुछ पता नहीं

दिल क्यों है बेकरार मुझे कुछ पता नहीं

किस का है इंतजार मुझे कुछ पता नहीं


छत्तीसगढ़ के 10 साल पूरे हो चुके हैं। भाजपा की सरकार बनाकर अपना 7 साल का बतौर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह पूरा कर रिकार्ड बना चुके हैं। लगातार 5 साल तक मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरा कार्यकाल का भी 2 साल पूरा करने वाले डॉ. रमन सिंह देश के भाजपा मुख्यमंत्रियों में अब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद दूसरे नंबर पर जगह बना चुके हैं। हालांकि पूर्व उपराष्टï्रपति स्व. भैरोसिंह शेखावत 3 बार मुख्यमंत्री बन चुके थे पर उन्हें कभी भी 5 साल तक मुख्यमंत्री रहने का सौभाग्य नहीं मिला था। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हाल ही में अपना पांच साल पूरा किया है पर उनके लिये उन्हें 2 पारी खेलनी पड़ी है। 2003 के विधानसभा में करीब 3 साल तथा 2008 की विधानसभा के बाद उन्हें 2 साल बतौर मुख्यमंत्री काम करने का अवसर मिला है। डॉ.रमन सिंह का पहला पांच-पांच साल समझने में ही लगा पर दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके आसपास के लाग ही कहते हैं कि अब वे पहले के डॉ. रमन सिंह नहीं रहे वे अब मुख्यमंत्री बन चुके हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी कार्यप्रणाली तथा भले आदमी की छवि का लाभ पार्टी को भी मिल रहा है। उनके बारे में यही कहा जाता है कि नौकरशाही के चलते काम रुक जरूर जाते हैं पर डॉ. रमन सिंह किसी के खिलाफ बदले की भावना से काम नहीं करते हैं जैसा कि आम राजनीतिज्ञों की आदत होती है। बहरहाल डॉ. रमन सिंह ने अपने सात साल बतौर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में पूरे कर लिये हैं। पर अफसरों पर सवारी करने पर सफल नहीं हो सके हैं। आज भी प्रदेश में नौकरशाही भारी साबित हो रही है। सबसे बड़ी विडंबना तो यही है कि मुख्यमंत्री के आसपास ही रहने वाले अफसर मुख्यमंत्री को आम जनता से दूर ही कर रहे हैं। डाक्टर साहब के निर्देश का भी ये अफसर पालन करने में रुचि नहीं लेते हैं। असल में सीएम हाऊस सहित सचिवालय में पदस्थ अफसर जनता और सीएम के बीच पुल का काम करना चाहिये पर ऐसा होता नहीं है। यह भी तो नहीं देखा जा रहा है कि मुख्यमंत्री के निर्देशों का 'फालोअपÓ हो रहा है या नहीं। वैसे डॉ. रमन सिंह के पास अमन सिंह, विक्रम सिंह सिसोदिया के बाद एक और 'सिंहÓ सुबोध सिंह भी पहुंच गये हैं पर तीनों 'सिंहोंÓ में एका कई बार नहीं है यह स्पष्टï हो चुका है। सीएम सचिवालय में एक निजी सचिव ओ पी गुप्ता भी है उसके बारे में तो कुछ मंत्री, सांसद सहित अफसर भी शिकायत कर चुके हैं कि वह तो ऐसे निर्देश फोन पर देता है मानों वहीं मुख्यमंत्री हो?

गुटबाजी और अहं की लड़ाई !

छत्तीसगढ़ 10 साल पूरे कर चुका है और ग्यारहवें साल की तरफ अग्रसर है पर प्रदेश में आपसी गुटबाजी और अहं की लड़ाई भी अनवरत जारी है। भारतीय जनता पार्टी की सत्तासीन सरकार की बात हो या प्रमुख विपक्षी दल कांगे्रस की बात हो या अफसरों की चर्चा करें खुलकर या लुकाछिपी में शह और मात का खेल जारी है।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और उन्हीं की नाम राशि वाले रमेश बैस के बीच 36 का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं है। शुक्ल बंधुओं को पराजित कर प्रदेश के सबसे वरिष्ठï सांसद बैस को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने से किसने रोका यह सर्वविदित है। डॉ. रमन सिंह मंत्रिमंडल के वरिष्ठï सदस्य बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत के बीच भी 36 का आंकड़ा है। कमल विहार को लेकर दोनों के बीच कडु़वाहट तो मंत्रिमंडल की बैठक में सार्वजनिक हो चुका है। कृषिमंत्री चंद्रशेखर साहू तथा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति के बीच भी 36 का आंकड़ा है। खेल मंत्री लता उसेंडी और पूर्व मंत्री रेणुकासिंह के बीच भी जमकर ठनी है। मुख्यमंत्री सचिवालय को संविदा नियुक्ति में पदस्थ अमन सिंह और ओएसडी विक्रम सिंह सिसोदिया के संबंध भी अच्छे नहीं रहे हैं। गृहमंत्री ननकीराम कंवर और डीजीपी विश्वरंजन के बीच तो भारी कटुता है। जहां तक विश्वरंजन का सवाल है तो छत्तीसगढ़ के अधिकांश मंत्री उनके व्यवहार और कार्यप्रणाली से असंतुष्टï हैं। वहीं उनके समकक्ष 2 डीजी संतकुमार पासवान और अनिल एम नवानी से उनके संबंध मधुर नहीं है। आर्थिक अपराध शाखा के आईजी डी एम अवस्थी के तो अधिकांश मंत्रियों सहित आईएएस, आईपीएस अफसरों से संबंध ठीक नहीं हैं। उन्हें अभी एडीजी पदोन्नति की चर्चा ही है और लोग उनके मुख्यालय में नहीं आने के लिए प्रयास तेज कर चुके हैं।
राजधानी की महापौर किरणमयी नायक और निगम कमिश्नर ओपी चौधरी के बीच तो 36 का आंकड़ा है वहीं महापौर सभापति के बीच भी मधुर संबंध नहीं है इसका खामियाजा रायपुर की जनता भुगत रही है वैसे अब महापौर का संबंध अपनी ही पार्टी के प्रमुख नेताओं से भी अच्छे नहीं रह गये हैं। कभी उन्हें अजीत जोगी, विद्याचरण शुक्ल, डॉ. चरणदास महंत, सत्यनारायण शर्मा का करीबी माना जाता था पर आजकल महापौर ने ही उनसे दूरियां बढ़ा ली है ऐसा कांगे्रसी ही कहते हैं।
कांगे्रस पार्टी में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और विद्याचरण शुक्ल में 36 का आंकड़ा था। पिछले विधानसभा चुनाव में अरूण वोरा को दत्तक पुत्र बताने वाले जोगी से आजकल मोतीलाल वोरा फिर दूर हो गये हैं। डॉ. चरणदास महंत तो हाल ही में नगरीय निकाय चुनाव की बैठक में अजीत जोगी से 'हमने आपको नहीं बुलाया थाÓ यह कहकर अपनी कडुवाहट सार्वजनिक कर चुके हैं। नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे अभी भी जोगी खेमे के विधायकों के आज भी विधानसभा में नेता नहीं मानेे जाते हैं। हाल ही में तो विधायक बदरूद्दीन कुरैशी ने उन पर आर्थिक अनियमितता के गंभीर आरोप लगाकर शपथ पत्र में शिकायत कर उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वैसे डॉ. रमन सिंह ने रविन्द्र चौबे के मधुर संबंधों की चर्चा अब तो आम कांगे्रसी भी करने लगा है।

तिरंगा केक

कभी छत्तीसगढ़ से जीतने वाले कांगे्रसी विधायकों की संख्या के आधार पर ही अविभाजित मध्यप्रदेश में सरकार बनती थी उसी छत्तीसगढ़ में पृथक राज्य बनने के बाद कांगे्रस की स्थिति दिनोंदिन सोचनीय होती जा रही है वहीं भाजपा फलती-फूलती जा रही है। कांगे्रस की हालत यह है कि वह विधानसभा हो या आम जनता के बीच कहीं भी भाजपा पर निशाना लगाने में सफल नहीं हो पा रही है। भाजपा की सरकार बनने के बाद विपक्षी दल कांगे्रस के पास कई मुद्दे हैं। भ्रष्टïाचार, प्रदेश के खनिज संसाधनों का अत्याधिक दोहन, स्वास्थ्य समस्या, केन्द्र के पैसों का दुरुपयोग, कानून व्यवस्था, कई मुद्दे हैं पर विपक्ष उसे दमदार तरीके से उठाने में न जाने क्यों असफल ही साबित हो रहा है। दरअसल कांगे्रस को अपनों से ही लडऩे से फुर्रसत नहीं मिल रही है। वहीं आये दिन कांगे्रस, सत्ताधारी दल को नये-नये मुद्दे परोस रही है।
देश की सबसे पुरानी कांगे्रस पार्टी में आखिर छत्तीसगढ़ में हो क्या रहा है। कभी इन्हीं की पार्टी के कुछ लोग केन्द्रीय मंत्री तथा प्रदेश प्रभारी नारायण सामी पर कालिख फेंकते हैं और संगठन में काबिज नेता 'एक बड़े नेताÓ की शिकायत आलाकमान से करता है। महापौर किरणमयी नायक सामान्य सभा के बहिष्कार की चेतावनी देती हैं और उसके बाद प्रदेश अध्यक्ष का पत्र आ जाता है कि सामान्य सभा में शामिल हों। कांगे्रस के पार्षद निर्दलीय पार्षद के पक्ष में मतदान करते हैं? अधिक संख्या में कांगे्रस के पार्षद बनने के बाद भी निगम में भाजपा का सभापति बन जाता है?
खैर हाल ही में सोनिया गांधी के जन्मदिन पर 'तिरंगा केकÓ भी अब जमकर चर्चा में है। इस विषय में तो अब कांगे्रस के महासचिव (पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोतीलाल वोरा के कार्यकाल के) सुभाष शर्मा और जिला कांगे्रस अध्यक्ष इंदरचंद धाड़ीवाल के खिलाफ पुलिस ने राष्टï्रीय ध्वज का अपमान के मामले में जुर्म कायम कर लिया है। यह गैर जमानती मामला है अब भले ही सुभाष शर्मा कहें कि मैंने तो केवल केक काटा है किसने बनाया था मुझे पता नहीं है। धाड़ीवाल कह रहे हैं कि केक का रंग तिरंगे से अलग था बीच में चक्र में डंडिया कम थी। बहरलाल यह बताना भी जरूरी है कि धाड़ीवाल तो पेशें से वकील हैं और सुभाष शर्मा ने भी एलएलबी किया है फिर सुंदरनगर गृहनिर्माण सोसायटी के बतौर संस्थापक रहकर उन्होंने इतनी अधिक लड़ाई कोर्ट में लड़ी है कि उन्हें देश के कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया है। वैसे पुलिस दोनों नेताओं के अलावा उस कार्यक्रम में उपस्थित अन्य नेताओं, केक बनाने आदेश देने वाले व्यक्ति, केक बनाने वाले बेकरी मालिक पर भी कार्यवाहीं करने के मूड में हैं।

और अब बस
(1)

खेलमंत्री लता उसेंडी कहती हैं कि हमारी सरकार ने खेल बजट में 40 गुना वृद्घि कर दी है। भाजपा सरकार में 'बजटÓ बढऩे पर ही तो खेलने का मौका मिल रहा है इसीलिए तो कई कांगे्रसी दुखी हैं।

(2)

छत्तीसगढ़ के एक अफसर की पत्नी को 40 हजार रुपए मासिक मिल रहा है उनका काम ग्रामीणों को शौचालय जाने प्रेरित करना ही है।

(3)

कभी संगठन प्रभारी रहे एक बड़े भाजपा नेता की पत्नी के एनजीओ को प्रदेश सरकार ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। उन्हें बच्चों की सेहत का जिम्मा सौंपा गया है।

Thursday, December 9, 2010

आइना ए छत्तीसगढ़

हमारी बेबसी यह है कि हम कुछ नहीं कहते हैं

वफा बदनाम होती है अगर फरियाद करते हैं


भारतीय जनता पार्टी के राष्टï्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी के पुत्र के विवाह में छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं ने भी शिरकत की, आखिर उनकी पार्टी के प्रमुख के घर पर कोई शुभ अवसर हो तो जाना तो पड़ेगा ही। फिर पार्टी के अध्यक्ष बनने के बाद ही उन्होंने पहले छत्तीसगढ़ प्रवास पर ही यह कहकर कई मंत्रियों, संसदीय सचिवों और विधायकों की नींद उड़ा दी कि पिछला चुनाव में 10 हजार से कम मतों से जीतने वालों के लिए खतरे की घंटी है। यानी भाजपा के विधायकों को यदि पिछला चुनाव 10 हजार से कम मतों से जीता है तो उन्हें पुन: टिकट मिलेगी यह कोई जरूरी नहीं है। नीतिन गडकरी ने यह किस संदर्भ में कहां यह तो पता नहीं है पर कइयों की नींद उन्होंने जरूर उड़ा दी है।
नीतिन गडकरी के हिसाब से तो छत्तीसगढ़ सरकार के 8 मंत्री सहित 4 संसदीय सचिव खतरे में है। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह मंत्रिमंडल के वनमंत्री विक्रम उसेंडी मात्र 109 मतों से विजयी रहे हैं तो जल संसाधन मंत्री हेमचंद यादव 702 कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू 1490 मतों से ही अपनी जीत दर्ज की थी। इसके अलावा छत्तीसगढ़ को अपने बयानों के लिये चर्चित पंचायत मंत्री रामविचार नेताम (4210) गृहमंत्री ननकीराम कंवर (8321) स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल (9376) उद्योगमंत्री दयालदास बघेल (6507) महिला एवं बाल विकास मंत्री लता उसेंडी (2771) ही विजयी रहे हैं। संसदीय सचिवों में विजय बघेल (7842) भइया लाल राजवाड़े (5546) ओमप्रकाश राठिया (3367) और भरत साय (9592) भी विजयी रहे हैं। मंत्रियों और संसदीय सचिवों को मिलाकर भाजपा के कुछ 28 विधायक ऐसे हैं जो 10 हजार से कम मतों से पिछला चुनाव जीतकर सदन में पहुंचे हैं। विधानसभा अध्यक्ष धर्मलाल कौशिक (6070) विस उपाध्यक्ष नारायण चंदेल (1190) डॉ. सुभाऊ कश्यप (1201) नंदकुमार साहू (2979) आदि भी इसी श्रेणी में हैं।
खैर बात शुरू हुई थी भाजपा के राष्टï्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी के नागपुर में पुत्र के विवाह के अवसर पर जाहिर है कि मंत्री विधायक तो शुभ अवसर पर नागपुर गये ही थे वहीं पार्टी के कुछ बड़े पदाधिकारी भी वहां पहुंचे थे। वैसे मंत्री विधायक तो पहुंचे ही साथ ही पिछली बार विधानसभा चुनाव में पराजित होने वाले पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे, पूर्व पंचायत मंत्री मंत्री अजय चंद्राकर आदि भी वहां पहुंचेना नहीं भूले। वैसे गडकरी के बेटे की शादी में भव्य आयोजन देखकर एक पूर्व मंत्री ने दिलचस्प टिप्पणी कर दी। हम तो चुनाव लड़कर लाखों खर्च करते हैं पर नीतिन जी ने तो एक भी चुनाव नहीं लड़ा है। चलो, इसी भव्य आयोजन में उन्होंने अच्छा खासा खर्च कर दिया है।

कानून व्यवस्था पर चिंतित डॉ. रमन सिंह

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह के हाल ही में पुलिस अधिकारियों की कानून व्यवस्था की स्थिति पर समीक्षा बैठक में तेवर देखकर कई लोगों के हाथ-पांव फूल गये हैं। केवल चापलूसी तथा राजनीतिक सेटिंग के चलते फील्ड में कमान हासिल करने वालों को मुख्यमंत्री की चेतावनी खतरे की घंटी ही लग रही है। दरअसल आदिवासी अंचल बस्तर तो नक्सली वारदातों से सहमा हुआ है। आपरेशन ग्रीन हण्ट के बाद नक्सली भिलाई, दुर्ग, बारनवापारा के जंगल, सरायपाली, बागबाहरा में उड़ीसा की सीमा से लगे गांवों में सक्रिय होने प्रयासरत हैं तो रायगढ़ के गोमार्डा अभ्यारण्य, बिलासपुर के अचानकमार क्षेत्रों में अपनी पैठ बनाने प्रयासरत हैं। उदंती अभ्यारण्य, सीतानदी क्षेत्र में तो उनकी सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। बस्तर में कानून व्यवस्था की स्थिति तो ठीक है ही नहीं। वहीं अब राजधानी रायपुर, औद्योगिक नगरी भिलाई-दुर्ग, न्यायधानी बिलासपुर, अम्बिकापुर में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ती जा रही है। हाल ही में बच्चों के अपहरण, उनकी हत्या से भी मुख्यमंत्री कम आहत नहीं है। उन्होंने पुलिस मुख्यालय में आईजी, एसपी की बैठक में 2-3 माह में स्थिति पर नियंत्रण पाने नहीं तो कार्यवाही की एक तरह से चेतावनी दे दी है। इधर सूत्रों की मानें तो हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत का रिकार्ड बनाने वाले नीतिश कुमार का मानना है कि बिहार में 'कानून व्यवस्थाÓ की स्थिति में सुधार उनकी जीत का प्रमुख कारण है। लगता है कि डॉ. रमन सिंह ने उन्हीं से प्रेरणा लेकर प्रदेश की कानून व्यवस्था ठीक-ठाक करने का मन बनाया है। वैसे भी बस्तर की 11 विधानसभ सीटों में 10 पर भाजपा का कब्जा है, वहां सलवा जुडूम दम तोड़ा रहा है, कानून के दायरे में आने के कारण वहां चाहकर भी सरकार कुछ करने की स्थिति में नहीं है, सलवा जुडूम के कारण शिविरार्थी का अब क्या होगा। यह सरकार के लिये चिंता का विषय है। इधर प्रमुख शहरों में कानून व्यवस्था की हालत से सरकार का चिंतित होना लाजिमी है। विपक्ष को एक अच्छा मौका मिल रहा है। दरअसल मुख्यमंत्री ने गृहमंत्री के साथ एक बार पहले भी पुलिस मुख्यालय का दौरा करके 'गुटबाजीÓ खत्म करने कहा था पर हालत जस की तस है। वैसे लगता है कि यदि एक दो माह के भीतर स्थिति संतोषप्रद नहीं दिखाई देती है तो पुलिस मुख्यालय से जिला स्तर पर एक बड़ा फेरबदल हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

गृहमंत्री वी/एस डीजीपी

छत्तीसगढ़ जैसे नक्सली प्रभावित जिले में प्रदेश के सबसे पुराने और अनुभवी आदिवासी नेता तथा गृहमंत्री ननकीराम कंवर और डीजीपी विश्वरंजन के बीच शुरू से ही पटरी नहीं बैठ रही है। जबकि दोनों के बीच जनरेशन गेप भी नहीं है। गृहमंत्री सीधे-सादे हैं लाग लपेट से दूर हैं। अनुभवी हैं, तो डीजीपी भी अनुभवी हैं, कवि हृदय है साहित्यकार हैं, पर वे कुछ चापलूस किस्म के लोगों से घिर गये हैं। वे कब छुट्टïी पर जाते हैं कहां जाते हैं इसकी जानकारी भी गृहमंत्री को नहीं रहती है। कभी गृहमंत्री के निर्देशों पर अवहेलना की चर्चा होती है तो कभी उनके निर्देशों पर तबादला नहीं करने का मसला उठता है, कभी उन्हें बुलेटप्रुफ कार नहीं देने की बात उठती है। पर हाल ही में एचएम स्क्वाड को लेकर चर्चा गर्म है। गृहमंत्रालय के अनुरोध पत्र को गृहमंत्री ने खारिज कर दिया था। पर स्पेशल स्क्वॉड मुख्यमंत्री के कहने पर ही भंग कर दिया है। उन्होंने तो यह भी आपत्ति की है कि स्पेशल स्क्वॉड का नाम एचएम स्क्वॉड किसने रखा है। यह भी ठीक नहीं है। अब सवाल यह उठ रहा है कि एचएम स्क्वॉड का गठन किसने किया था, उसे भंग करने या नहीं करने का अधिकार किसको है। यदि गृहमंत्रालय के स्तर पर स्क्वॉड गठित किया गया था तो उसके लिये बल, वाहन आदि तो डीजीपी साहब ने ही उपलब्ध कराया होगा। उस समय उन्होंने क्यों मना नहीं किया था? यदि जिला पुलिस बल की कार्यप्रणाली से डीजीपी संतुष्टï हैं तो लगभग सभी बड़े जिलों में क्राइम स्क्वॉड के गठन की क्यों जरूरत पड़ी?
दरअसल यह पूरा झगड़ा गृहमंत्री और डीजीपी के अहं का अब बन चुका है। डीजीपी द्वारा प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान (सरकार से विधिवत अनुमति ली गई है या नहीं पता नहीं)
के गठन, राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक रहे विनोद चौबे की नक्सलियों द्वारा हत्या, डीजीपी उस समय संस्थान के कार्यक्रम में व्यस्त रहने पर गृहमंत्री ननकीराम कंवर द्वारा कारण बताओ नोटिस जारी करने के बाद से दूरियां और बढ़ गई है। गृहमंत्री के नोटिस का हालांकि अभी डीजीपी की तरफ से जवाब नहीं आया है पर गृहमंत्री और डीजीपी के बीच की बढ़ती दूरियों से प्रदेश के अफसर भी अलग-अलग लामबंद होना शुरू हो गये हैं। कुल मिलाकर डा. रमनसिंह को मध्यस्थता का कोई बड़ा रास्ता मिकालना होगा। वैसे यह भी चर्चा है कि पुलिस अधिकारियों की जिला स्तर पर पदस्थापना मुख्यमंत्री के आसपास रहने वाले कुछ नौकरशाहों की पसंद-नापसंद पर आजकल अधिक निर्भर कर रहा है तभी तो बिलासपुर संभाग में एक प्रभारी मंत्री की इच्छा के विरूद्ध एक बड़े पुलिस अफसर की पदस्थापना की गई है।

अधिक पुस्तकें छपी तो कैसे?

बच्चों को मुफ्त बांटी जाने वाली पाठ्यपुस्तकें कबाड़ी के गोदाम में रद्दी के भाव में बेची गई आनन-फानन में पापुनि के महाप्रबंधक सुभाष मिश्रा सक्रिय हो गये, स्कूल प्रबंधन को दोषी ठहरा दिया। स्कूली शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने नाराजगी जाहिर की, अनाधिकृत बिक्री करने वालों के खिलाफ कार्यवाही के निर्देश दिये तथा वितरण से बची पुस्तकें पापुनि को लौटाने के भी निर्देश दिये। स्कूली शिक्षा विभाग में नये नये प्रमुख सचिव बने एम.के. राऊत ने भी आवश्यक निर्देश दिये। उन्होंने आगामी शिक्षा सत्र में छात्रों की वास्तविक संख्या के आधार पर ही पुस्तकें उपलब्ध कराने का भी भरोसा दिलाया। अब कुछ सवाल उठ रहे हैं कि वास्तविक छात्र संख्या से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने दोषी कौन है, स्कूलों में डाक से पापुनि ने पाठ्यपुस्तकें भेजी थी जाहिर है कि स्कूलों में मांग के अनुसार ही पुस्तकें भेजी गई होगी तो अधिक पुस्तकें कैसे पहुंची, फिर पुस्तकें यदि रद्दीवाले के गोदाम में पहुंची तो उस शाला के छात्रों को पुस्तकें उपलब्ध नहीं कराई गई है, यदि उन्हें पुस्तकें नहीं मिली तो बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा। पापुनि के महाप्रबंधक सुभाष मिश्र स्कूल प्रबंधक पर लापरवाही का आरोप लगा रहे हैं तो एक स्कूल के पास 10 लाख की पुस्तकें कहां से पहुंची। वैसे पापुनि की स्थिति तो तभी साफ हो सकती है जब वह पिछले 3-4 साल में कागज की खरीदी और प्रकाशित पुस्तकों की संख्या सार्वजनिक करें। यही नहीं पिछले 3-4 सालों में दर्ज छात्र संख्या भी सार्वजनिक करना जरूरी है। वैसे 40 हजार महीने के किराये के मकान पर चल रहे कार्यालय को करीब 2 लाख मासिक के किराये पर लेने की क्या जरूरत थी यह भी स्पष्टï करना जरूरी है पापुनि के पूूर्व अध्यक्ष इकबाल अहमद रिजवी तो पापुनि के पिछले 5 साल के जमा खर्च की स्पेशल आडिट किसी विशेषज्ञ से कराने का अनुरोध भी शालेय शिक्षामंत्री बृजमोहन अग्रवाल से कर रहे हैं।

और अब बस

(1) छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अफसर को मलाईदार पद जाने का अफसोस है। यदि बिहार में नई सरकार के शपथग्रहण तक फेरबदल नहीं होता तो उनका मलाईदार पद नहीं जाता।

(2)

डा. रमन सिंह ने पुलिस मुख्यालय जाकर अफसरों की जमकर क्लास ली। इससे हाल ही में पुलिस मुख्यालय से हटाये गये एक अफसर काफी खुश है।

Wednesday, December 1, 2010

छत्तीसगढ़ आईना
दोस्तों की बेनियाजी देखकर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी
आ गया अब जूझना हालात से
वक्त की पेचीदगी, अच्छी लगी
छत्तीसगढ़ के तत्कालीन गृहमंत्री रामविचार नेताम ने विधानसभा में बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ शुरू 'सलवा जुडूम के लोकयुद्घÓ में लालआंधी के रूप में चर्चित नक्सलियों से टकराने की जुर्रत कर अपना घर बार छोड़कर सुरक्षा कैम्प में रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों को 'शिविरार्थीÓ की जगह 'शरणार्थीÓ कह दिया था और कांगे्रस ने खूम हंगामा मचाया था। अब 'शरणार्थीÓ शब्द का प्रयोग नेताम ने जानबूझकर किया था या उनके मुंह से निकल गया था यह तो वहीं बता सकते हैं पर अब जमीनी हकीकत यह है कि सलवा जुडूम के योद्घा हों या सुरक्षा शिविर में रहने वाले ग्रामीण हों अब शरणार्थी की हालत में ही पहुंच चुके हैं।
निर्वासन, विस्थापन या परायेपन का एहसास क्या होता है इसका सही जवाब तो सलवा जुडूम शिविर में किसी तरह जीवन गुजारने वाले ग्रामीण आदिवासी ही दे सकते हैं। बस्तरवासी कुछ आदिवासियों ने तीर-धनुष, टंगियानुमाहथियार, लकड़ी के ल_ï लेकर ए. के. -47 जैसे संगीन एवं आधुनिक हथियार लेकर घूमने वाले नक्सलियों से दो-दो हाथ करने का पक्का इरादा किया था और इसमें उन्हें उन्हीं की माटी में जन्मे आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने पूरा सहयोग करने का यकीन दिलाया था। यहीं नहीं छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया डॉ.रमन सिंह ने भी उनके साथ हमेशा खड़े रहने का भरोसा दिलाया था। पहले तो उन्हें सुरक्षा शिविरों में ठहराया गया, उनके रहने भोजन सहित सुरक्षा की भी व्यवस्था की गई, नक्सलियों के खिलाफ स्वास्र्फूत आंदोलन सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों की हिटलिस्ट में आये कई गांवों के करीब 45 हजार ग्रामीण अपना घर-बार, पुरखों की डेहरी, गाय तथा अन्य जानवर छोड़कर सरकार द्वारा मुख्य सड़क के करीब बनाये गये राहत शिविरों में भी रहने राजी हो गये। राज्य सरकार ने भी 45 हजार लोगों के रहने सहित भोजन आदि की व्यवस्था भी सरकार करती थी। गांव छोड़कर राहत शिविरों पर रहने आने के पीछे यहीं मजबूरी थी कि गांव में रहने पर नक्सली आकर मार सकते थे। राहत शिविर में पहले तो सुरक्षाबल को सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई पर धीरे-धीरे विशेष पुलिस अधिकारी ही राहत शिविर के मुखिया बन गये और उनका आतंक बरपने लगा। ग्रामीणों के सामने यही मजबूरी थी कि गांव तो लूट चुके हैं, बरबाद हो चुका है, नक्सलियों का भय बना हुआ था पर शिविरों में सुरक्षा बल सहित विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) का अत्याचार बढ़ता जा रहा था फिर नक्सलियों के भी कुछ राहत शिविरों में हमला करके अपना आतंक बरपाना शुरू कर दिया। बाद में तो कई ग्रामीण आदिवासी राहत शिविर छोड़कर पास के प्रदेश मसलन उड़ीसा-आंधप्रदेश में शरण लेने मजबूर हो गये। अब तो राहत शिविरों में गिनती के ही ग्रामीण बचे हैं।
हाल ही में सरकार ने भी सलवा जुडूम शिविरों में आर्थिक मदद में हाथ खींच लिया है। सूत्रों की मानें तो सरकार ने सलवा जुडूम को आर्थिक मदद नहीं करने का निर्णय ले लिया है। हालांकि इसकी अधिकृत पुष्टिï नहीं हो सकी है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर बस्तर के स्कूल, आश्रमों सहित कुछ अन्य सार्वजनिक भवनों से सुरक्षाबल को हटाने के आदेश भी मुख्य सचिव ने दे दिए हैं।
सबसे बड़ी चर्चा तो यह है कि सलवा जुडूम आंदोलन के नाम पर देश-विदेश में चर्चा में आये नेताओं ने 'आपरेशन ्रग्रीनहण्टÓ चालू करने पर सलवा जुडूम समर्थको से न तो चर्चा करना जरूरी समझा न ही उन्हें आपरेशन ग्रीनहण्ट का हिस्सा बनने ही दिया। अब हालत यह है कि बस्तर का 'सलवा जुडूमÓ दम तोड़ रहा है। सरकार ने तो हाथ खींच लिया ही है।
वहीं नेता प्रतिपक्ष तथा कभी बस्तर टाईगर के नाम से चर्चित महेंद्र कर्मा भी विधानसभा चुनाव पराजय के बाद कुछ कम सक्रिय हैं हाल ही में एक नया संगठन बनाना और उसकी बैठक में कर्मा का शामिल होना भी चर्चा में है। हालत यह है कि सलवा जुडूम समर्थक ग्रामीण तथा राहत शिविर में रह रहे लोग अपने गांव वापस नहीं हो सकते क्योंकि वहां तो कुछ बचा ही नहीं है। खेत बंजर हो चुके हैं, पुरखों की डेहरी, छोटी-मोटी झोपड़ी, पुराना कुछ झोपडिय़ों का गांव वीरान हो चुका है, मवेशी बचे नहीं है नक्सलियों का डर अभी भी बरकरार है और राहत शिविरों की व्यवस्था भी बिगड़ चुकी है। सरकार के हाथ खींचने से अब वहां की हालत दयनीय हो चुकी है। कभी राहत शिविरों में मुख्यमंत्री राज्यपाल सहित बड़े आला अफसर आते थे पर अब तो वहां वीरानी है। हाल ही में प्रशासनिक मुखिया जाय उम्मेन सहित कई विभागों में प्रमुख सचिव, सचिव आदि जगदलपुर बस्तर विकास की एक जरूरी बैठक में शामिल होने पहुंचे थे पर किसी ने भी राहत शिविर जाने में रुचि नहीं ली। नई सरकार बनने के बाद गृहमंत्री या कोई अन्य मंत्री या डीजीपी विश्वरंजन एक-दो बैठक में आये या किसी नक्सली वारदात के बाद ही आये पर राहत शिविर की तरफ किसी ने रुख नहीं किया, वहां की व्यवस्था नहीं देखी। राहत शिविर में रहने वालों के लिये पक्के मकान बनाने की घोषणा केवल सपना ही साबित हुई, राहत शिविरवासियों को रोजगार मूलक प्रशिक्षण देने की योजना का हश्र क्या हुआ यह राहत शिविर में जाकर देखा जा सकता है। कुल मिलाकर अपने ही देश-प्रदेश तथा क्षेत्र में सलवा जुडूम से जुड़े लोग शरणार्थियों सा जीवन अब नहीं जी पा रहे हैं।
कब तक होते रहेंगे प्रयोग!
लगभग 30 सालों से माओवादी दहशत से साल के वनों से आच्छांदित, सुदर छटा के लिये चर्चित बस्तर में अब कदम-कदम पर आतंक अपने पांव पसारे बैठा है। किस कदम पर मौत का सामना हो जाए कोई नहीं जानता है। हालत तो अब यह हो गई है कि लोग बस्तर में न अपनी बेटी देना चाहते हैं और न ही वहां से बहु लाना चाहते हैं। हालत यह है कि बस्तर में सामान्य परिवार के कई लोग राजधानी के आसपास अपना ठिकाना बना चुके हैं। बस्तर में भाजपा सरकार 'काबिजÓ होने के बाद निश्चित ही नक्सली वारदातों में वृद्घि परिलक्षित हुई है। पहले विदेश से लौटने के पश्चात ओपी राठौर को सीधे डीजीपी बना दिया गया और उनकी ही देखरेख में 'सलवा जुडूमÓ आंदोलन पला, बढ़ा फिर बस्तर के आदिवासी युवकों (कम उम्र के बच्चों) को भी विशेष पुलिस अधिकारी बनाकर उन्हें बिना प्रशिक्षण या लायसेंसों के बंदुक देकर नक्सलियों के उन्मूलन का प्रयोग चला, एसपीओ पर फिर कई तरह के आरोप भी लगे। ओ पी राठौर के कार्यकाल में ही पंजाब में आतंकवाद के खात्मे में कारगार भूमिका निभाने वाले पूर्व पुलिस अधिकारी के पी एस गिल को सरकार का सलाहकार नियुक्त किया गया। उन्होंने कुछ सुझाव भी दिये पर उन्हें पूरे अधिकार सौंपे नहीं गये और बाद में सलाहकार पद से हटने के बाद उन्होंने पुलिस सहित सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किये। ओ पी राठौर की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात केन्द में आईबी (इंटेलीजेन्स ब्यूरो) में लम्बे समय तक कार्य करने वाले विश्वरंजन को मनाकर छत्तीसगढ़ लाकर डीजीपी का प्रभार सौंपा गया। इनके कार्यकाल में तो कई रिकार्ड बने। फील्ड का अनुभव लम्बे समय तक नहीं होना भी उनके कार्यकाल पर अंगुली उठाता है, फिर उनके गृहमंत्री से छत्तीस के संबंध भी चर्चा में है। एक साथ 75 सीआरपीएफ के जवानों की शहादत, पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे की नक्सलियों द्वारा हत्या, बस्तर में नक्सलियों द्वारा सबसे बड़ी बारुद लूट ने भी रिकार्ड बनाया। वैसे बृजमोहन अग्रवाल को हटाकर आदिवासी वर्ग से पहले रामविचार नेताम फिर ननकीराम कंवर को गृहमंत्री बनाना भी नया प्रयोग था। विश्वरंजन के कार्यकाल में पुलिस अफसरों के बीच गुटबाजी की भी चर्चा अक्सर सुनाई देती है। वैसे अभी तक प्रदेश को नक्सली प्रभावित क्षेत्र मानकर ही पहले राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय (पूर्व पुलिस महानिदेशक बिहार) के एम सेठ (पूर्व सैन्य अधिकारी), ईएसएल नरसिम्हन (पूर्व आईबी प्रमुख), को राज्यपाल बनाया और अभी शेखर दत्त (पूर्व आईएएस अधिकारी तथा रायपुर-बस्तर संभाग में कमिश्नर का दायित्व सम्हाल चुके) को पदस्थ किया है लोग इसे भी केन्द्र का प्रयोग ही मानते हैं। वैसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में लम्बे समय तक फील्ड में पदस्थ संतकुमार पासवान को जेल में सीमित करना भी सरकार का प्रयोग ही हो सकता है। सरकार के प्रयोग के चलते ही राजीव माथुर प्रदेश छोड़कर चले गये। अनिल नवानी को होमगार्ड, बस्तर में आईजी की जिम्मेदारी सम्हालने वाले एडीजी अंसारी को लोक अभियोजन, बस्तर के पुलिस अधीक्षक रहे जीपी सिंह को खेल संचालन बनाना, कभी भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पदस्थापना नहीं होने वाले अफसर राजेश मिश्रा को प्रवक्ता बनाना निश्चित ही सरकार का नया प्रयोग हो सकता है।
और अब बस
(1)
बस्तर में पुलिस महानिरीक्षक लॉगकुमेर का सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है एक टिप्पणी- पहले तो डीएम अवस्थी का भी कोई विकल्प नहीं है यह कहा जाता था?
(2)
रायपुर के कलेक्टर रोहित यादव और पुलिस कप्तान दीपांशु काबरा पहले नक्सली प्रभावित क्षेत्र में रह चुके हैं, इसलिए राजधानी में नक्सलियों के पहुंचने की खबर से लोगों को चितिंत होने की जरूरत नहीं है।
(3)प्रदेश की कानून व्यवस्था से चितिंत होकर मुख्यमंत्री कल सभी आईजीएसपी की बैठक ले रहे हैं। एक टिप्पणी-पहले गृहमंत्री, डीजीपी विवाद का हल तो सोचें?