Sunday, May 30, 2010

आइना ए छत्तीसगढ़

आइना ए छत्तीसगढ़
हमने मांगी थी, जरा सी रोशनी घर के लिये
आपने जलती हुई बस्ती के नजराने दिये

छत्तीसगढ़ में बस्तर जल रहा है। नक्सलियों द्वारा आये दिन की जा रही हिंसक वारदात के कारण 'छत्तीसगढ़Ó देश-विदेश की निगाह में है। एक साथ सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बल के 75 जवानों की हत्या, बारूदी सुरंग विस्फोट से यात्री वाहन को उड़ाने की घटना अभी-अभी घटित हुई है वहीं हाल ही में नक्सलियों ने 16 टन अमोनिया नाइटे्रट जैसा विस्फोट लूट (!) लिया है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने तालमेटला में नक्सली वारदात के बाद चूक के लिये राज्य सरकार के 2 आईपीएस अफसरों के खिलाफ कार्यवाही की सिफारिश की है वहीं सीआरपीएफ के 3 अफसरों को हटा दिया गया है। पुलिस मुख्यालय में अफसरों में गुटबाजी का आलम है, एक बार जो नक्सली क्षेत्र में पदस्थ हुआ है उसे 'वहींÓ पदस्थ करने की सरकार की नीति है। राज्य में गुप्तचर शाखा की कमजोरी हर नक्सली हमले में सामने आ रही है पर एडीजी गुप्तचर का स्वीकृत पद रिक्त है। गुप्तचर शाखा का प्रभार आईजीडीएम अवस्थी के पास है तो नक्सली अभियान की जिम्मेदारी आईजी राजेश मिश्रा को सौंपी गई है। सबसे आश्चर्य तो इसी बात का है कि ये दोनों अफसर कभी भी नक्सली क्षेत्र में पदस्थ ही नहीं रहे हैं। बस्तर के पुलिस जिलों की कमान भी दूसरे प्रदेशों के नये-नये अफसरों के पास है। पुलिस के आलाअफसर हों या प्रशासन के वरिष्ठï अफसर वे बस्तर में रात्रिविश्राम करने से परहेज रखते हैं। कुल मिलाकर बस्तर के ग्रामीण अब कहने लगे हैं कि हम तो पहले ही ठीक थे अब तो 2 पाटन के बीच पिसने की मजबूरी है और मौत का एहसास पल-पल में होता है।
राज्य सरकार क्या करेगी?
केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ सरकार को सिफारिश भेजी है कि दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला में 6 अपै्रल को नक्सलियों द्वारा 75 सीआरपीएफ और जिला पुलिस के एक जवान की हत्या के मामले में चूक के लिये बस्तर के आईजी लांगकुमेर (91बैच) और दंतेवाड़ा के पुलिस कप्तान अमरेश मिश्रा (2005 बैच) पर कार्यवाही की जाए। ज्ञात रहे कि रिटायर्ड डीजी (सीआरपीएफ) राममोहन की जांच रिपोर्ट में सीआरपीएफ और प्रदेश पुलिस के बीच बेहतर तालमेल नहीं होने की बात सामने आई है। इधर ताड़मेटला चूक के नाम पर सीआरपीएफ के डीआईजी नलिन प्रभात, कमांडेट विस्ट और एक निरीक्षक संजीव सिंह को पहले ही सीआरपीएफ ने हटा दिया है। गृहमंत्रालय की रिपोर्ट को हालांकि मानने के लिये राज्य सरकार मजबूर नहीं है पर यदि गृहमंत्रालय और डीजीपी की सलाह पर राज्य सरकार यदि केन्द्रीय गृहमंत्रालय की सिफारिश को नहीं मानती है तो उसका असर नक्सली अभियान पर पड़ सकता है। खैर राज्य सरकार का अभी तक जो रवैय्या रहा है वह केन्द्र से सहयोगात्मक ही रहा है। हाल ही में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात कर पत्रकारों के समक्ष स्पष्टï किया कि नक्सली उन्मूलन में उनके और चिंदबरम के बीच कोई मतभेद नहीं है ऐसे समय में केन्द्रीय गृहमंत्रालय की सिफारिश मानने उन पर पर दबाव भी है। वैसे जानकार कहते हैं कि यदि मुख्यमंत्री ने अपनी इच्छा पर निर्णय लिया तो दोनों आईपीएस अधिकारियों का हटना लगभग तय है। वैसे भी बस्तर के पुलिस महानिदेशक टी जे लांगकुमेर तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने के समय से ही बस्तर में तैनात है वे पुलिस कप्तान से आईजी तक का सफर वहां तय कर चुके हैं, वहीं अमरेश मिश्रा तो 2005 बैच के आईपीएस हैं उन्हें हटाना भी कोई बड़ी समस्या सरकार के सामने नहीं है। वैसे दोनों अफसर मूलत: छत्तीसगढ़ के बाहर के निवासी हैं। पहले भी यह चर्चा चल रही थी कि नक्सली प्रभावित बस्तर के पुलिस जिलों में प्रदेश के बाहर के अफसरों की नियुक्ति ही क्यों की जा रही है जबकि इन अफसरों को बस्तर की भौगोलिक परिस्थिति, वहां के रहन-सहन और भाषा आदि की भी जानकारी नहीं है जबकि छत्तीसगढ़ में डीएसपी से लेकर कम से कम आईजी स्तर के छत्तीसगढ़ मूल के निवासी अफसर मौजूद हैं पर उन्हें 'लूपलाइनÓ में रखा जाता है। खैर सवाल यह है कि गृहमंत्रालय की सिफारिश पर राज्य सरकार क्या कदम उठाती है यही देखना है क्योंकि सिफारिश के बाद ही नक्सली अभियान का भविष्य निर्भर करेगा।
चूक पर कार्यवाही क्यों नहीं?
छत्तीसगढ़ में नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में केन्द्रीय सुरक्षा बलों के राज्य पुलिस से तालमेल की कमी तो सामने आ ही रही है वहीं प्रदेश पुलिस मुख्यालय की गुटबाजी भी चर्चा में है। वैसे पुलिस महानिदेशक का पद भार विश्वरंजन द्वारा सम्हालने के बाद नक्सलियों ने कई रिकार्ड बनाये हैं और सुरक्षाबल केवल 'चूकÓ की ही बात करती है, नक्सलियों पर 'कायरना हमलाÓ का आरोप मढ़ा जाता है और फिर किसी बड़ी घटना का इंतजार होता है। बस्तर के धूर नक्सली प्रभावित दंतेवाड़ा जिले का नाम अब देश ही नहीं विदेश में भी चर्चा में है।यहां की जेल से 299 नक्सली तथा आम कैदी जेलबे्रक कर फरार हो जाते हैं। यह नक्सलियों का सबसे बड़ा 'जेल ब्रेकÓ था इसमें केवल एक प्रभारी जेलर को आरोपी बनाया जाता है, उसे भी 'राजद्रोहÓ के मामले में न्यायालय इसलिए बरी कर देता है क्योंकि पुलिस ने विधिवत राज्य सरकार से 'राजद्रोहÓ का प्रकरण चलाने अनुमति नहीं ली थी। जेल डीआईजी पीडी वर्मा को प्रथम दृष्टी निलंबित किया गया पर उन्हें आरोप पत्र देने के पहले ही बहाल कर दिया गया आखिर इस मामले में 'चूकÓ किसकी थी?'सेफजोनÓ समझे जाने वाले क्षेत्र में पुलिस अधीक्षक विनोद चौबे सहित कई सुरक्षाबल के लोगों की नक्सलियों ने हत्या कर दी आखिर कहां किसकी 'चूकÓ थी? कांकेर जिले का एक हवलदार कुछ अन्य लोगों को गश्त के नाम पर पड़ोसी जिला धमतरी के रिसगांव में ले गया और वहां नक्सलियों ने बड़ी वारदात की आखिर इस चूक के लिए कौन जिम्मेदार था? ताड़मेटला में 75 सीआरपीएफ और एक प्रदेश पुलिस के जवान की नक्सलियों ने घेरकर हत्या कर दी, आखिर किस की सूचना पर सीआरपीएफ के जवान वहां गये थे, उनके साथ कितने स्थानीय पुलिस जवान गये थे क्या थाना प्रभारी या उपर के अफसरों को बिना जानकारी दिये सीआरपीएफ के 75 जवान चले गये थे, इस सबसे बड़ी नक्सली द्वारा की गई हत्या के लिये आखिर किसकी 'चूकÓ थी?राष्टï्रीय राज मार्ग 43 में पहले से (संभवत: डामरीकरण के पहले) नक्सलियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट कर एक यात्री बस को उड़ा दिया जिसमें करीब 36 लोग मारे गये 15 से अधिक कोया कमांडो, एसपीओ शामिल थे। जब बस्तर में सुरक्षाबल को किसी यात्री बस में सवारी से प्रतिबंध हैं तो ये लोग बस में कैसे सवार हो गये। आम नागरिकों की मौत के लिए आखिर किसने चूक की? उक्त सड़क निर्माण करने वाले ठेकेदार या अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्यवाही की गई?देश में नक्सलियों द्वारा सबसे बड़ 16 टन 'आमोनियम नाईट्रेटÓ की लूट के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। एक ड्रायवर रूस से आया विस्फोटक लेकर विशाखापटनम से रायपुर/भिलाई के लिए ट्रक लेकर चलता है और उसी हाइवे में जहां कुछ दिन पूर्व ही यात्री बस को नक्सलियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट से उड़ा दिया था उसी राष्टï्रीय राजमार्ग में 16 टन विस्फोटक 2 नक्सली लेकर चले जाते हैं, ड्रायवर को पावती भी देते हैं अब तो 2 लाख 77 हजार कुछ रुपये देने की पावती देने की भी चर्चा है और गुड़सा उसेण्डी के हस्ताक्षर भी पावती में है इसलिए पुलिस अब ट्रक ड्रायवर और ट्रांसपोर्ट कंपनी को मिली भगत कर नक्सलियों को विस्फोटक आपूर्ति की बात कर रही है? सवाल तो यह भी उठता है कि क्या विस्फोट की खेप गुड़सा उसेंडी ने ही ली थी? और यदि ट्रांसपोर्ट मालिक की मिली भगत थी तो ड्रायवर ने पावती पुलिस को क्यों दी? बहरहाल देश की सबसे बड़ी विस्फोट की लूट पर पुलिस अभी तक कुछ कहने की स्थिति में नहीं है, वैसे इस प्रकरण में लूट हो या आपूर्ति पर पुलिस और गोपनीय विभाग की कलई फिर खुल गई है।
राज्यपाल को बागडोर !
वैसे नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में अब केन्द्र राज्य सरकारों से बंधे बिना सीधे राज्यपाल के जरिये काम कराने पर भी गंभीरता से विचार कर रही है ऐसी स्थिति में नक्सली प्रभावित क्षेत्र की बागडोर किसी एक अफसर को सौंपकर नक्सली विरोधी मोर्चा चलाया जा सकता है। टाईम्स आफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र के महाधिवक्ता ने सलाह दी है कि नक्सली प्रभावित क्षेत्रों के लिए सरकार संविधान पांचवी अनुसूची के तहत आने वाले नक्सल प्रभावित 9 में से 6 राज्यों में राज्य सरकार से बंधे बिना सीधे राज्यपाल के जरिये काम कर सकती है। इस सुझाव के बाद केन्द्र सरकार ऐसी रणनीति बना सकती है जो इस धारणा को गलत साबित कर दे कि नक्सलवाद से लड़ाई में केवल राज्य सरकार की सलाह पर ही राज्यपाल काम कर सकते हैं। इसके साथ ही बरसों से अविकसित रह गये इलाकों का विकास भी कर सकते हैं। ज्ञात रहे कि छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, म.प्र., आंध्र प्रदेश और महाराष्टï्र में संविधान की पांचवी अनुसूची के क्षेत्र अधिकतर जंगल और आदिवासी क्षेत्र हैं जहां विकास की धीमी गति से माओवाद ने अपने पैर जमा लिये हैं। उस अखबार के अनुसार प्रशासन की खामी के कारण फैलते जा रहे नक्सलवाद से चिंतित राष्ट्रपति, केन्द्र सरकार द्वारा इस मुद्दे पर अधिकारिक कानूनी सलाह लेने को कहा था कि क्या राज्यपाल संवैधानिक रूप से उन्हें मिली विवेकाधीन सत्ता का उपयोग करते हुए पांचवे अनुसूचित इलाकों में राज्य सरकारों की सलाह से बाध्य हुए बिना सक्रिय भूमिका निभा सकता है। गृहमंत्रालय के सूत्रों ने तो यहां तक कहा है कि केन्द्र के महाधिवक्ता ने सरकार को इसके समर्थन में सलाह देते हुए कहा है कि राज्यपाल, राज्य सरकारों के परामर्श के बिना अपनी विवेकाधीन सत्ता का उपयोग कर सकते हैं. उन्होंने यह भी स्पष्टï किया है कि नक्सलवाद के साथ विकास को गति को तेज करने की दोहरी नीति को अमल में लाने के लिए राज्यपाल पांचवे अनुसूचित इलाकों में शांति और सुप्रशासन के लिए अधिनियम बनाने भी स्वतंत्र है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि छ.ग. में पांचवी अनुसूची के तहत सरगुजा, बस्तर, रायगढ़, रायपुर, राजनांदगांव, दुर्ग, बिलासपुर और कांकेर क्षेत्र शामिल है।
संयुक्त राष्टï्रसंघ चिंतित
इधर संयुक्त राष्टï्रसंघ ने भारत में नक्सली संगठन द्वारा बच्चों की भर्ती पर चिंता प्रकट की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ बच्चे जबरदस्ती स्कूल से भर्ती कर लिये जाते हैं। सशस्त्र संघर्ष पर अपनी नवीनतम रिपोर्ट में संयुक्त राष्टï्र संघ ने कहा है कि छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों में नक्सलियों द्वारा सशस्त्र संघर्ष में बच्चों का इस्तेमाल बहुत चिंता जनक है। इस अंतर्राष्टï्रीय संगठन ने एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि अक्टूबर 2009 में नक्सलियों ने अपने सशस्त्र संघर्ष के लिए 5 लड़के लड़कियां देने हर गांववालों को मजबूर किया था। महासचिव वान -का मून द्वारा अपनी रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बात की कई विश्वसनीय रिपोर्ट है कि स्कूलों से लाकर जबरदस्ती बच्चे माओवादी संगठन में भर्ती किये जाते हैं इधर छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन भी पहले ही स्वीकार कर चुके है कि बस्तर में नक्सलियों की पाठशाला चल रही है। खैर नक्सलियों पर अंकुश, दबाव की कितनी भी बाते की जाए पर यह तो स्पष्ट है कि नक्सलियों का जाल कम से कम बस्तर में तो फैल ही चुका है। जब जनगणना कर्मी कई गांवो में प्रवेश नहीं कर पा रहे है तब स्पष्टï है कि वहां के ग्रामीण किस तरह नक्सलियों के दबाव में जीवन जीने मजबूर है। और अब बस
(1)
कभी मुख्यालय में पुलिस के एक आला अफसर का बगलगीर रहने वाला एक आईपीएस अफसर आज-कल जगह-जगह कहने में पीछे नहीं है कि जब तक 'साहबÓ रहेंगे नक्सली समस्या का हल होना असंभव है। वैसे कुछ लोग इस दोनो अफसरों के बीच की मिली-जुली 'नूरा कुश्तीÓ भी कह रहे हैं।
(2)
यदि बस्तर के आईजी लांगकुमेर को हटाया जाता है तो प्रदेश में सबसे योग्य (?) पुलिस अफसर की वहां तैनाती की जा सकती है। सबसे योग्य पुलिस अफसर कौन है यह किसी से छिपा नहीं है।

Saturday, May 22, 2010

आइना ए छत्तीसगढ़

तमाम लोग हवाओं से बात करने लगे
वे कल्पना के परिंदों को मात करने लगे
जो शत्रु थे, वो लड़े युद्घ सामने आकर
हमारे दोस्त ही, पीछे से घात करने लगे

छत्तीसगढ़ की राजनीति में कभी शुक्ल बंधुओं का दबदबा था कहा जाता था कि इनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता है। फिर शुक्ल विरोधी गुट अर्जुन सिंह की सरपरस्ती में उभरा उसे दिग्विजय सिंह, अजीत जोगी जैसे नेताओं ने हवा दी और शुक्ल गुट के वंशवादी वृक्ष में मठा डालने का प्रयास किया गया। कांगे्रस की गुटबाजी के कारण ही कभी मध्यप्रदेश की सरकार छत्तीसगढ़ के विधायकों के भरोसे बनती थी उसी छत्तीसगढ़ में भाजपा लगातार 2 बार सरकार बनाने में सफल हो चुकी है। पर भाजपा में भी अब शह और मात खेल तेजी से चल रहा है। विद्याचरण शुक्ल को राज्यसभा टिकट के लिये जोर मारना पड़ रहा है तो छत्तीसगढ़ के सबसे वरिष्ठï सांसद रमेश बैस छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नहीं बन सकें। यह छत्तीसगढ़ में चल रही शह और मात के खेल का बड़ा उदाहरण है। छत्तीसगढ़ जैसे नवजात राज्य में राजनीति और कूटनीति की यह चाल राजनीतिक पार्टी को क्या नुकसान पहुंचाएगी यह तो नहीं कहा जा सकता है पर 'छत्तीसगढ़ का विकासÓ जरूर प्रभावित हो रहा है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी छत्तीसगढ़ का कुछ वर्षों से नेतृत्व नहीं होना भी चितंनीय ही कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ में कांगे्रस और भाजपा की राजनीति के दो योद्घा आजकल अपनी ही पार्टी में असहज हो गये हैं उनकी अपनी ही पार्टी में आजकल वैसी नहीं चल रही है जैसी चलनी चाहिए। 24 जनवरी 1966 से संसदीय कार्य एवं संचार मंत्रालय में उपमंत्री से अपनी केन्द्रीय राजनीति का आगाज करने वाले विद्याचरण शुक्ल ने गृह राज्य मंत्री, वित्त, रक्षा, सूचना एवं प्रसारण नागरिक आपूर्ति एवं सहकारिता, विदेश, जल संसाधन, संसदीय आदि मंत्रालय का कार्यभार सम्हाल चुके हैं। भारत की राजनीति में एक चर्चित नाम विद्याचरण शुक्ल से देश ही नहीं विदेश में भी लोग परिचित हैं। उन्हें हमेशा कांगे्रस का पर्याय समझा जाता था। वैसे केन्द्र की राजनीति में उन्हें हमेशा 'पीएम के बादÓ का ही दर्जा हासिल था। 1957 में पहली बार बलौदाबाजार लोकसभा से मिनीमाता के साथ वे भी चुने गये थे उस समय 2 सांसद चुनने का प्रावधान था उस समय सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले और उसके निकटवर्ती प्रत्याशी सांसद चुने जाते थे। 1957 के बाद 1962 से महासमुंद लोकसभा चुनाव में उन्होंने खूबचंद बघेल को पराजित किया था उसके बाद1964 का उपचुनाव जीता, 1967 में महासमुंद, 1971 में रायपुर 80, 84,89 से महासमुंद का चुनाव जीतते रहे केवल 1997 का चुनाव रायपुर लोस से विजयी रहे। वे 1977, 1997 का लोस चुनाव रायपुर से पराजित हो गये थे तो नया राज्य बनने के बाद 2004 का लोस चुनाव महासमुंद से बतौर भाजपा प्रत्याशी पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी से हार गये थे। खैर 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ बगावत कर जनता दल गठित करने वाले नेताओं के साथ विद्याचरण शुक्ल भी थे। 1989 में वे जद प्रत्याशी के रूप में सांसद बने। पर उन्हें वीपी सिंह के मंत्रिमंडल के स्थान नहीं मिला पर कांगे्रस के समर्थन से चंद्रशेखर की बनी सरकार में वे जरूर कैबिनेट मंत्री बने थे। 1991 में वीसी की कांगे्रस में वापसी होती है और वे नरसिंह राव सरकार में कैबिनेट मंत्री बनते हैं। पर 96 के लोस चुनाव में उन्हें हवाला के नाम पर कांगे्रस प्रत्याशी नहीं बनाती है बाद में हवाला से न्यायालय द्वारा दोष मुक्त किये जाने के बाद 98 में उन्हें कांगे्रस पुन: लोस प्रत्याशी बनाती है लेकिन वे पराजित हो जाते हैं। उसके बाद वे 99 के लोस चुनाव में उनकी जगह श्यामाचरण शुक्ल को प्रत्याशी कांगे्रस पार्टी बनाती है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद विद्याचरण शुक्ल ने पहला मुख्यमंत्री बनने बड़ी लाबिंग की, तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ उनके फार्महाऊस में अशोभनीय घटना भी उन पर भारी पड़ी, अजीत जोगी, दिग्विजय सिंह मजबूत होते गये और वीसी कमजोर। सन् 2004 के लोस चुनाव में वीसी शुक्ल के बतौर भाजपा प्रत्याशी महासमुंद से चुनाव लड़ा और कांगे्रस के अजीत जोगी से पराजित हो गये। उसके बाद वे फिर कांगे्रस में लौट गये पर उनकी स्थिति पहले जैसे नहीं रही। पिछले लोस चुनाव में महासमुंद से लोस टिकट चाहते थे, पर साहू समाज के एक ऐसे व्यक्ति को प्रत्याशी बनाया गया जिसने पहली बार चुनाव लड़ा था। खैर उसकी पराजय भी हुई। अब विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ से मोहसिना किदवई की रिक्त हो रही राज्य सभा के लिये प्रयासरत हैं वहीं उनका नाम अभी उभरा ही है कि अजीत जोगी भी सक्रिय हो गये हैं। कुल मिलाकर कभी देश, में प्रधानमंत्री के बाद की स्थिति रखने वाले वीसी शुक्ल छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, लोकसभा टिकट के बाद अब राज्यसभा की टिकट के लिये संघर्ष कर रहे हैं जबकि कभी उनके आशीर्वाद से सांसद, विधायकों को टिकट मिला करती थी। वे कांगे्रस में तो हैं पर उपेक्षित ही हैं।अब भाजपा की बात करें। छत्तीसगढ़ की राजनीति में जनसंघ से लेकर भाजपा की बात करें तो एक नाम उभरता है रमेश बैस का। ब्राम्ह्मïणपारा वार्ड के पार्षद से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाले रमेश बैस मध्यप्रदेश विधानसभा का सफर तय करके केन्द्रीय मंत्री तक का सफर तय कर चुके हैं। 1980 में मंदिर हसौद से विधायक बने रमेश बैस 1984 से 2004 तक लगातार रायपुर लोकसभा टिकट हासिल कर चुनाव लड़ रहे हैं और 89,96,98,99, 2003 और 2008 तक लोकसभा चुनाव में विजयी होते रहे हैं। उनके खाते में पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल और पूर्व मुख्यमंत्री पं. श्यामाचरण शुक्ल को भी पराजित करने का श्रेय है। केन्द्र में इस्पात एवं खान, रसायन एवं उर्वरक , सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहने का भी अनुभव है। कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पहले विस चुनाव में उन्हें ही सरकार बनाने की चुनौती देने का जिम्मा देने का प्रयास किया था पर उनकी अनिच्छा के चलते इस अवसर को डा. रमन सिंह ने लपक लिया, सरकार बनी और दूसरी बार डा. रमन सिंह मुख्यमंत्री बने हैं। वैसे प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद रमेश बैस का लगातार राजनीतिक बजन कम होता जा रहा है। प्रदेश की भाजपा सरकार के काम काज पर वे उंगली उठाने में पीछे नहीं है। हाल ही में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के चुनाव में पिछड़ावर्ग की पैरवी कर उस वर्ग का अध्यक्ष बनाने की उनकी मांग भी खारिज हो गई और रामसेवक पैकरा जैसे एक अचर्चित नेता को अध्यक्ष की बागडोर सौंप दी गई। हालांकि रमेश बैक अब कह रहे हैं कि पैकरा के चयन के लिए उनसे राय ली गई? खैर मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और रमेश बैस के बीच मतभेद कई बार सार्वजनिक हो चुका है। प्रशासनिक अधिकारी भी इस बात की पुष्टिï करते हैं तो भाजपा के वरिष्ठï नेता भी।खैर पार्षद, विधायक, सांसद का सफर तक का केन्द्रीय मंत्री बनने वाले विद्याचरण -श्यामाचरण जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञों को उन्हीं के गृह नगर में पराजित करने वाले रमेश बैस को या उनके किसी पिछड़ा वर्ग के नेता को भाजपा का अध्यक्ष नहीं बनाना तो यही साबित करता है कि रमेश बैस के मुकाबले डा. रमन सिंह केन्द्रीय नेतृत्व के सामने अधिक मजबूत हैं।
और अब बस
(1)
कुछ वरिष्ठï कांग्रेसी अभी भी कहते है कि जब तक बेनी माधव तिवारी, रम्भू श्रीवास्तव आदि विद्याचरण शुक्ल के निजी सचिव थे तब तक ठीक था जब से राजेन्द्र तिवारी जैसे लोग जुड़े तब से भईया की राजनीतिक पराजय शुरू हो गई।
(2)
भाजपा के नेताओं का कहना है कि यह ठीक है कि राहुल गांधी का भाजपा में कोई विकल्प नहीं है पर छत्तीसगढ़ में रमेश बैस का विकल्प भी कांग्रेस के पास नहीं है हम इसी से खुश हैं।

Tuesday, May 11, 2010

आईना-ए-छत्तीसगढ़ _ by Shanker Pandey

सरपरस्ती वक्त के हाकिम की है मुझको नसीब
अपनी खामी को भी इक खूबी गिना सकता हूं मैं


छत्तीसगढ़ को कभी 'धान का कटोराÓ कहा जाता था फिर नया राज्य बनने के बाद 'औद्योगिकीकरण का कड़ाहÓ कहना कुछ लोगों ने शुरू कर दिया था पर अब तो छत्तीसगढ़ को 'खून का उबलता कड़ाहÓ कहा जाने लगा है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचल बस्तर में डॉ. रमन सिंह सरकार ने आदिवासियों द्वारा स्वस्फूर्त आंदोलन 'सलवा जुडूमÓ को सहयोग किया गया था पर जब केन्द्रीय सुरक्षा बलों के सहयोग से 'आपरेशन ग्रीन हण्टÓ की शुरूआत की गई तो क्या आदिवासियों को विश्वास में लिया गया! उन्हीं की सुरक्षा के लिये चलाये जा रहे ग्रीनहण्ट के लिये उन्हें न तो पर्याप्त जानकारी दी गई न ही उन्हें इस आपरेशन से जोडऩे कोई प्रयास किये गये। यही नहीं इस आपरेशन में सलवा जुडूम आंदोलन में भागीदारी करने वाले राहत शिविरों में रहने वाले ग्रामीणों सहित एसपीओ को भी अलग रखा गया। एक बात तो तय है कि बस्तर के आदिवासी किसी भी बाहरी को पसंद नहीं करते हैं। नक्सलियों ने भी पहले ग्रामीणों के दुखदर्द में भागीदार बनकर उनका विश्वास जीता यह बात और है कि बस्तर के आदिवासी उन्हें अपना दुश्मन मान रहे हैं। विभिन्न राज्यों के केन्द्रीय सुरक्षाबल में शामिल जवानों की बस्तर में आमद बढ़ी और ग्रामीण नक्सलियों-सुरक्षाबलों के बीच संघर्ष की बनती स्थिति देखकर अपने प्राणों की रक्षा के लिये और भी भीतरी क्षेत्रों में पलायन करने लगे। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में बस्तर की भौगोलिक स्थिति से पूर्णरूपेण परिचित अफसरों को भी कमान देनी थी। बस्तर में पहले रह चुके कुछ आलाअफसरों को वहां तैनात करना था पर पुलिस मुख्यालय तो गुटबाजी में फंसा है। अब तो यही माना जाता है कि बस्तर में तैनाती यानि सजा है। बस्तर में कोई भी घटना होती है तो बयानबाजी का दौर शुरू हो जाता है, नक्सलियों पर कायरतापूर्ण हमले का आरोप लगाया जाता है, चूक की बात स्वीकार की जाती है, एक-दो दिन के लिये पुलिस के डीजी जिला मुख्यालय जाकर बैठक लेकर लौट जाते हैं और फिर वारदात के कारणों पर टीका टिप्पणी का दौर शुरू हो जाता है।
पहले आदिवासियों द्वारा या उनके समर्थन से बस्तर में नक्सिलयों के खिलाफ 'सलवा जुडूमÓ अभियान की शुरूआत की गई, तब नक्सलियों की हिंसा बढ़ी, रानीबोदली, एर्राबोर जैसे नरसंहार हुए तो राज्य सरकार तथा पुलिस प्रशासन का यही जवाब था कि नक्सलियों की जमीन खिसकती जा रही है इसलिये नक्सली हिंसक हो गये हैं और ग्रामीणों को निशाना बनाना शुरू कर चुके हैं। सलवा जुडूम अभियान, एसपीओ की भूमिका पर सवाल उठे, मामला न्यायालय तक पहुंचा और सुरक्षाबलों पर फर्जी मुठभेड़ का भी आरोप लगा। इसी के बाद केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय के मुखिया पी चिंदबरम द्वारा 'आपेरशन ग्रीन हण्टÓ का नाम देकर नक्सली प्रभावित राज्यों में केन्द्रीय सुरक्षा बल मुहैया कराया गया हालांकि केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय का कहना है कि 'आरपेशन ग्रीन हण्टÓ से हमारा कोई लेना-देना नहीं है यह विशुद्घ रूप से राज्य सरकार की मुहिम है हम तो केवल सुरक्षाबल मुहैया करा रहे हैं। फिर नक्सली आरपेशन के नाम पर केन्द्र सरकार ने सीआरपीएफ के स्पेशल डीजी विजय रमन की तैनाती क्यों की गई? उन्होंने छत्तीसगढ़ में ही अपना मुख्यालय क्यों बनाया?
खैर हाल ही नक्सली प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के तालमेटला में नक्सलियों द्वारा 75 सीआरपीएफ तथा एक प्रदेश पुलिस के जवानों की शहादत ले ली। उसके बाद केन्द्र के आदेश पर सीआफपीएफ के एक रिटायर्ड डीजी राममोहन आये उन्होंने अपनी रिपोर्ट भी केन्द्र सरकार को सोंप दी है। केन्द्रीय एवं राज्य के बल के बीच तालमेल का अभाव ही ताड़मेटला की घटना का प्रमुख कारण माना जा रहा है। केन्द्र सरकार सहित राज्य सरकार के प्रमुख यही कर रहे थे कि 'चूकÓ के कारण देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात हुई। अभी ताड़मेटला की शहादत के कारणों की समीक्षा ही चल रही थी कि शनिवार को शाम 5 बजे नक्सलियों ने सीआरपीएफ के एक वाहन को बारूदी विस्फोट से उड़ाकर 8 जवानों की फिर शहादत ले ली है। सवाल फिर उठ रहा है कि जब वह मार्ग अति संवेदनशील था तो एहतियात क्यों नहीं बरती गई और फिर डीजीपी विश्वरंजन ने चूक स्वीकार कर ली। आखिर कब तक चूक स्वीकार की जाती रहेगी और कब तक जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी, घर में घुसकर नक्सलियों को मारेगें यही राग राजधानी से अलापा जाएगा।

कुछ सवाल डीजीपी से!

छत्तीसगढ़ की पुलिस तथा केन्द्रीय बलों के बीच बेहतर तालमेल की बात कितनी भी की जाए पर सच्चाई सभी को पता है। प्रदेश के गृहमंत्री ननकीराम कंवर और पुलिस प्रमुख विश्वरंजन के बीच ही बेहतर तालमेल नहीं है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और गृहमंत्री ननकीराम कंवर को गुटबाजी के चलते पुलिस मुख्यालय तक जाना पड़ा फिर भी स्थिति वही है। बीजापुर के कोड़ेपाल में कल ही नक्सली हमले में 8 जवानों के शहीद होने पर गृहमंत्री ननकीराम कंवर का कहना था कि अब नक्सल आपरेशन की कमान सेना को सम्हालनी चाहिए, नक्सलियों का सूचना तंत्र मजबूत है और हमें दुश्मन को कमजोर नहीं समझना चाहिए। वे महसूस करते हैं कि नक्सलियों से लडऩे अब सेना को मैदान में लाना चाहिए पर डीजीपी विश्वरंजन ने गृहमंत्री के बयान को खारिज करते हुए कहा कि सेना की जरूरत नहीं है। वे सूचनातंत्र की विफलता को पहले भी खारिज कर चुके हैं तथा 'चूकÓ ही मानते हैं।
वैसे डीजीपी से कुछ सवाल तो पूछे ही जा सकते हैं। एक ही अफसर जो गुप्तचर शाखा का प्रमुख है यह वह राज्य बनने के बाद में राजधानी में ही है उसकी आजतक नक्सली क्षेत्र में पदस्थापना क्यों नहीं की गई? नक्सली मामले के राज्य में सबसे अधिक जानकार तथा फील्ड में पदस्थ रहने के अनुभवी अफसर संतकुमार पासवान से क्या कभी नक्सल आपरेशन में चर्चा की गई? सीारपीएफ के विशेष डीजी तथा नक्सली आपरेशन के लिए राजधानी में ही तैनात विजय रमन से कितनी बार अधिकृत चर्चा नक्सली आपरेशन पर की गई। पुलिस मुख्यालय में एडीजीपी गुप्तवार्ता और डीआईजी (गुप्तवार्ता) आईजी (प्रशासन) और डीआईजी (प्रशासन) एडीजीपी फायनेंस प्लानिंग और प्रोवीजन का पद क्यों रिक्त है?
दुर्ग आईजी रेंज का पद केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत नहीं किये जाने पर भी दुर्ग आईजी की नियुक्ति, केवल रायपुर जिले के लिए एक आईजी की नियुक्ति, केन्द्र द्वारा एडीजी एसआईबी का पद स्वीकृत नहीं है फिर भी उस पद पर नियुक्ति, केन्द्र द्वारा डीआईजी दंतेवाड़ा के पद की ही स्वीकृति दी है फिर डीआईजी कांकेर/राजनांदगांव पर नियुक्ति कैसे की गई है।
गृहमंत्री ननकीराम कंवर को आज तक बुलेटप्रुफ कार उनके अनुरोध के बाद भी मुहैया क्यों नहीं कराई गई है? डीजीपी साहब आप, पुलिस मुख्यालय में पदस्थ गुप्तचर शाखा के प्रमुख, एडीजीपी ने कितनीरात बस्तर मुख्यालय में गुजारी है? आपरेशन ग्रीन हंट चलने के पहले क्या आदिवासियों को विश्वास में लिया गया? क्या आदिवासियों को आपरेशन ग्रीनहण्ट के विषय में कुछ बताना जरूरी नहीं समझा गया? ताड़मेटला में मारे गये 75 सीआरपीएफ जवानों के साथ केवल एक ही राज्य पुलिस के सिपाही को क्यों भेजा गया था। बस्तर के आईजी लांगकुमेर ने पत्रकारों से कहा था कि शहीद सीआरपीएफ के जवान आपरेशन ग्रीनहण्ट के तहत गये ही नहीं थे? तो क्या सर्चिंग या आपरेशन में जाने के पहले रिकार्ड रखा जाता है?
गृहमंत्री पी चिदंबरम ने जेएनयूके एक कार्यक्रम में ताडमेटला नक्सली वारदात के लिए एक आईजी, 2 डीआईजी और एक एसपी को चूक के लिए जिम्मेदार माना था तो वे लोग कौन है? गृहमंत्री को अपना पुलिस दस्ता बनाकर जुआ सट्टा प्रदेश में पकड़वाने की जरूरत क्यों पड़ी? बहरहाल दंतेवाड़ा जिले में सबसे बड़ा जेलब्रेक होने और राज्यद्रोह का आरोप लगाने पर राज्य सरकार से अनुमति नहीं लेने पर उप जेलर मानकर न्यायालय से रिहा हो गया, उसका नार्को टेस्ट नहीं कराया गया उसके लिए कौन दोषी है? दुर्ग जेल में एक नक्सली समर्थक से मुलाकात के बाद उसके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल नहीं करने के कारण उसकी जमानत हो गई तो किसके खिलाफ कार्यवाही की गई? आपके अनुसार सेफजोन मदनवाडा में विनोद चौबे जैसे युवा अफसर की नक्सलियों द्वारा हत्या की गई, ताड़मेटला में 76 जवान मारे गये और एक माह के भीतर ही 8 सीआरपीएफ के जवानों को नक्सलियों नें स्फिोट कर उड़ा दिया। खैर छत्तीसगढ़ को कभी धान का कटोरा कहा जाता था अब वह लहु का खोलता कड़ाह बनते जा रहा है साहब, केवल राजधानी में कुछ चापलूसों के साथ बैठकर बयानबाजी से बचें और फील्ड में जाकर जवानों के साथ अधिक समय गुजारे तभी तो उनका मनोबल बढ़ेगा।

साय का भविष्य

अविभाजित म.प्र. तथा छत्तीसगढ़ के वरिष्ठï आदिवासी नेता नंदकुमार साय के भविष्य पर अब सवाल उठ रहे हैं। प्रथम नेता प्रतिपक्ष साय को प्रदेश के पहले विस चुनाव में अजीत जोगी के खिलाफ विस चुनाव लड़वाकर 'शहीदÓ करने का प्रयास शुरू हुआ, फिर उन्हें उनके पुराने रायगढ़ संसदीय क्षेत्र की जगह सरगुजा से लोस टिकट दी गई उनका तो भाग्य था कि वे वहां से भी चुनाव जीत गये। दूसरे चुनाव में उनकी टिकट काटकर मुरारी सिंह को सरगुजा से प्रत्याशी बनाया गया। बाद में नंदकुमार साय को कुछ माह के लिए राज्यसभा सदस्य बना दिया गया। अब रिक्त हो रही राज्यसभा के लिए धर्मेन्द्र प्रधान करुणा शुक्ला के नाम की चर्चा है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के लिए रामसेवक पैकरा का नाम करीब करीब फायनल कर लिया गया है। ऐसे में हाल ही में विधायक रविशंकर त्रिपाठी के निधन से रिक्त हुई भटगांव विधानसभा का ही सहारा बचा है। यदि नंदकुमार साय को भटगांव से विस प्रत्याशी बनाया जाता है तो उनकी जीत के बाद उन्हें 'मंत्रीÓ बनाने का भी मजबूरी रहेगी वहीं उनके विधायक बनने से आदिवासी एक्सप्रेस फिर से शुरू होने की भी संभावना है, वहीं उनके मंत्री बनने से एक आदिवासी मंत्री कम करना पड़ेगा ऐसे में ननकीराम कंवर/ रामविचार नेताम के लिए खतरे की घंटी है। वैसे एक बड़े भाजपा नेता ने तो यहां तक कहा है कि नंदकुमार साय को यदि गृहमंत्री बना दिया जाए तो पुलिस तो कम से कम सुधर ही जाएगी। बहरहाल छत्तीसगढ़ में भाजपा के शह और मात के खेल में ऊंट किस करवट बैठेगा कुछ कहा नहीं जा सकता है।

और अब बस

(1)

एक सांसद से लोस में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज की निकटता है, राज्य के एक मंत्री की भाजपा अध्यक्ष नीति गड़करी से दोस्ताना है यह चर्चा थी पर 'प्रतिफलÓ तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

(2)

छत्तीसगढ़ के एक आईपीएस अफसर आजकल स्फटिक की माला पहनकर सुधरने की बात कर रहे है पर लोग कहते है कि कुत्ते की पूंछ सीधी हो सकती है पर वे नहीं सुधर सकते हैं।

(3)

कभी टिकरापारा में लाखों का एक कार्यालय किराये पर लेने पर भाजपा ने विधानसभा में 3 दर्जन से अधिक सवाल पूछकर सरकार को कटघरे में कड़ा किया था। पर भाजपा की सरकार बनने पर एक अफसर ने 2 लाख रुपया महीने पर भवन किराये में लिया है तो भाजपा के लोग चुप क्यों है?